Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Vijay K Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 142
________________ अध्याय - ९ मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः ॥८॥ [मार्गाच्यवननिर्जरार्थं ] संवर के मार्ग से च्युत न होने और कर्मों की निर्जरा के लिये [ परीषहाः परिषोढव्याः ] बाईस परीषह सहन करने योग्य हैं। (यह संवर का प्रकरण चल रहा है, अतः इस सूत्र में कहे गये 'मार्ग' शब्द का अर्थ 'संवर का मार्ग' समझना।) The afflictions are to be endured so as not to swerve from the path of stoppage of karmas and for the sake of dissociation of karmas. क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचनाऽलाभरोगतृणस्पर्शमल सत्कारपुरस्कारप्रज्ञाऽज्ञानादर्शनानि ॥९॥ [ क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचनाऽलाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाऽज्ञानादर्शनानि ] क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन, ये बाईस परीषह हैं। 129

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