Book Title: Tattvarth Sutra ka Mahattva
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf

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Page 4
________________ १० : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ इस बन्धके कारणीभूत मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूप आस्रव, इन मिथ्यात्व आदिकी समाप्तिरूप संवर, तपश्चरणादिके द्वारा वर्तमान बन्धनको ढीला करनेरूप निर्जरा और उक्त कर्म- नोकर्मरूप पुद्गल के साथ सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद कर लेनेरूप मुक्ति ये सात तत्त्व हमारे निष्कर्ष में आवेंगे । भौतिक दृष्टि से वस्तुतत्त्व द्रव्यरूपमें ग्रहीत होता है और आध्यात्मिक दृष्टिसे वह तत्त्वरूपमें ग्रहीत होता है । इसका कारण यह है कि भौतिक दृष्टि वस्तुके अस्तित्व, स्वरूप और भेद-प्रभेदके कथनसे सम्बन्ध रखती है और आध्यात्मिक दृष्टि आत्माके पतन और उसके कारणोंका प्रतिपादन करते हुए उसके उत्थान और उत्थान के कारणोंका ही प्रतिपादन करती है । तात्पर्य यह है कि जब हम अवस्तुके अस्तित्वकी ओर दृष्टि डालते हैं तो उसका वह अस्तित्व किसी-न-किसी आकृतिके रूपमें ही हमें देखनेको मिलता है । जैन संस्कृतिमें वस्तुकी यह आकृति ही द्रव्यपद वाच्य है । इस तरहसे विश्वमें जितनी अलग-अलग आकृतियाँ हैं उतने ही द्रव्य समझना चाहिये | जैन संस्कृतिके अनुसार विश्वमें अनन्तानन्त आकृतियाँ विद्यमान हैं अतः द्रव्य भी अनन्तानन्त ही सिद्ध हो जाते हैं । परन्तु इन सभी द्रव्योंको अपनी-अपनी प्रकृतियों अर्थात् गुणों और परिणमनों अर्थात् पर्यायोंकी समानता और विषमताके आधारपर छह वर्गोंमें संकलित कर दिया गया है अर्थात् चेतनागुणविशिष्ट अनन्तानन्त आकृतियोंको जीवनामक वर्ग में, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुणविशिष्ट अणु और स्कन्धके भेदरूप अनन्तानन्त आकृतियोंको पुद्गल नामक वर्गमें, वर्तनालक्षण विशिष्ट असंख्यात आकृतियोंको काल- नामक वर्ग में, जीवों और पुद्गलोंकी क्रियामें सहायक होनेवाली एक आकृतिको धर्मनामक वर्ग में, उन्हीं जीवों और पुद्गलोंके ठहरने में सहायक होने वाली एक आकृतिको अधर्म - नामक वर्ग में तथा समस्त द्रव्योंके अवगाहन में सहायक होने वाली एक आकृतिको आकाश नामक वर्गमें संकलित किया गया है । यही कारण है। कि द्रव्यों की संख्या जैन संस्कृतिमें छह ही निर्धारित कर दी गई है । इसी प्रकार आत्मकल्याणके लिये हमें उन्हीं बातोंकी ओर ध्यान देनेकी आवश्यकता हैं जो कि इसमें प्रयोजनभूत हो सकती हैं । जैन संस्कृतिमें इसी प्रयोजनभूत बातको तत्त्व नामसे पुकारा गया है, ये तत्त्व भी पूर्वोक्त प्रकारसे सात ही होते हैं । इस कथनसे एक निष्कर्ष यह भी निकल आता है कि जो लोग आत्मतत्त्व के विवेचनको अध्यात्मवाद और आत्मासे भिन्न दूसरे अन्य तत्वोंके विवेचनको भौतिकवाद मान लेते हैं उनकी यह मान्यता गलत है क्योंकि उक्त प्रकारसे, जहाँपर आत्माके केवल अस्तित्व, स्वरूप या भेद-प्रभेदोंका ही विवेचन किया जाता है वहाँ पर उसे भी भौतिकवादमें ही गर्भित करना चाहिये और जहाँपर अनात्मतत्त्वोंका भी विवेचन आत्मकल्याणकी दृष्टिसे किया जाता है वहाँपर उसे भी अध्यात्मवादकी कोटि में ही समझना चाहिये । यह बात तो हम पहले ही लिख आये हैं कि जैन संस्कृतिमें अध्यात्मवादको करणानुयोग और भौतिकवादको द्रव्यानुयोग नामों से पुकारा गया है । इस प्रकार समूचा तत्त्वार्थ सूत्र आध्यात्मिक दृष्टिसे लिखा जानेके कारण आध्यात्मिक या करणानुयोगका ग्रन्थ होते हुए भी उसके भिन्न-भिन्न अध्याय या प्रकरण भौतिक अर्थात् द्रव्यानुयोग और चारित्रिक अर्थात् चरणानुयोगकी छाप अपने ऊपर लगाये हुए हैं, जैसे पाँचवें अध्यायपर द्रव्यानुयोगकी और सातवें तथा नवम अध्यायोंपर चरणानुयोगको छाप लगी हुई है । तत्त्वार्थसूत्र के प्रतिपाद्य विषय तत्वार्थ सूत्र में जिन महत्त्वपूर्ण विषयोंपर प्रकाश डाला गया है वे निम्नलिखित हो सकते है'सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्र तथा इनकी मोक्षमार्गता, तत्त्वोंका स्वरूप, वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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