Book Title: Tattvarth Sutra ka Mahattva
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf

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Page 3
________________ ५ / साहित्य और इतिहास : ९ करना चाहें तो वह उक्त तीन भागों में विभक्त की जा सकती हैं । इनमेंसे आध्यात्मिक विषयका प्रतिपादक करणानुयोग, भौतिक विषयका प्रतिपादक द्रव्यानुयोग और आचार या कर्त्तव्य विषयका प्रतिपादक चरणानुयोग इस तरह तीनों भागोंका अलग-अलग प्रतिपादन करनेवाले तीन अनुयोगोंमें जैन आगमको भी विभक्त कर दिया गया है । तत्त्वार्थ सूत्र मुख्यतः आध्यात्मिक विषयका प्रतिपादन करनेवाला ग्रन्थ है, कारण कि इसमें जो कुछ लिखा गया है वह सब आत्मकल्याणकी दृष्टिसे ही लिखा गया है अथवा वही लिखा गया है जो आत्मकल्याण की दृष्टिसे प्रयोजन भूत है, फिर भी यदि विभाजित करना चाहें तो कहा जा सकता है कि इस ग्रन्थ पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे, छठे, आठवें और दशवें अध्यायोंमें मुख्यतः आध्यात्मिक दृष्टि ही अपनायी गयी है, इसी तरह पाँचवें अध्यायमें भौतिक दृष्टिका उपयोग किया गया है और सातवें तथा नवम अध्यायों में विशेषकर आचार या कर्त्तव्य सम्बन्धी उपदेश दिया गया है । तत्त्वार्थ सूत्र आध्यात्मिक दृष्टिसे ही लिखा गया है या उसमें आध्यात्मिक विषयका ही प्रतिपादन किया गया है यह निष्कर्ष इस ग्रन्थको लेखनपद्धतिसे जाना जा सकता । इस ग्रन्थका 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' यह पहला सूत्र है, इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्रको मोक्षका मार्ग बतलाया गया है । तदनन्तर 'तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' इस सूत्र द्वारा तत्त्वार्थोंके श्रद्धानको सम्यक्दर्शनका स्वरूप बतलाते हुए 'जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्वम्' इस सूत्रद्वारा जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष रूपसे उन तत्त्वार्थोंकी सात संख्या निर्धारित कर दी गयी है और द्वितीयतृतीय- चतुर्थ अध्यायोंमें जीवतत्त्वका, पञ्चम अध्यायमें अजीवतत्त्वका छठे और सातवें अध्यायोंमें आस्रव तत्त्वका, आठवें अध्यायमें बन्धतत्त्वका, नवम अध्याय में संवर और निर्जरा इन दोनों तत्त्वोंका और दशवें अध्यायमें मोक्षतत्त्वका इस तरह क्रमशः विवेचन करके ग्रन्थको समाप्त कर दिया गया है । जैन आगम में वस्तुविवेचनके प्रकार जैन आगम वस्तुतत्त्वका विवेचन हमें दो प्रकारसे देखनेको मिलता है— कहीं तो द्रव्योंके रूपमें और कहीं तत्त्वोंके रूपमें । वस्तु तत्त्व विवेचनके इन दो प्रकारोंका आशय यह है कि जब हम भौतिक दृष्टिसे अर्थात् सिर्फ वस्तुस्थिति के रूप में वस्तुतत्त्व की जानकारी प्राप्त करना चाहेंगे तो उस समय वस्तुतत्त्व जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छः द्रव्यों के रूपमें हमारी जानकारी में आयेगा और जब हम आध्यात्मिक दृष्टिसे अर्थात् आत्मकल्याणकी भावनासे वस्तुतत्त्वको जानकारी प्राप्त करना चाहेंगे तो उस समय वस्तुतव जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंके रूपमें हमारी जानकारीमें आयगा । अर्थात् जब हम 'विश्व क्या है ?' इस प्रश्नका समाधान करना चाहेंगे तो उस समय हम इस निष्कर्षपर पहुँचेंगे कि जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छः द्रव्योंका समुदाय ही विश्व है और जब हम अपने कल्याण अर्थात् मुक्तिकी ओर अग्रसर होना चाहेंगे तो उस समय हमारे सामने ये सात प्रश्न खड़े हो जावेंगे - (१) मैं कौन हूँ ?, (२) क्या मैं बद्ध हूँ ?, (३) यदि बद्ध हूँ तो किससे बद्ध हूँ ?, (४) किन कारणोंसे मैं उससे बद्ध हो रहा हूँ (५) बन्धके वे कारण कैसे दूर किये जा सकते हैं ? (६) वर्तमान बन्धनको कैसे दूर किया जा सकता है ? और (७) मुक्ति क्या है ? और तब इन प्रश्नोंके समाधान के रूपमें जीव, जिससे जीव, बंधा हुआ है ऐसा कर्म- नोकर्मरूप पुद्गल, जीवका उक्त दोनों प्रकारके पुद्गलके साथ संयोगरूप बन्ध, १. तत्त्वार्थ सूत्र ५ - १, २, ३, ३९ । २. जीवाजीवास्रवबन्धसंवर निर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । - तत्त्वार्थसूत्र १-४ | ५-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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