Book Title: Tattvachintan ke Sandarbh me Anubhutipurak Satya ka Ek Adbhut Upkram Author(s): C L Shastri Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 4
________________ Jain Education International चतुर्थ खण्ड / ३४२ श्रुतज्ञान, प्रागम, शास्त्र आदि के अध्ययन, वाचन, मनन, श्रवण आदि से प्राप्त होने वाला ज्ञान है। श्रुतज्ञान प्राप्तवचन्नात्मक होता है, उच्चतम स्थान पर पहुंचे हुए महापुरुषों की देशना से अनुगत होता है । अतएव उसमें किंचित्मात्र भी शंकास्पदता नहीं होती । श्रुतज्ञान के इस स्वरूप को ध्यान में रखते हुए सम्त ने "श्रुतज्ञान में भ्याव" इन शब्दों द्वारा श्रुतज्ञान की न्याय्यता तथा उपादेयता पर प्रकाश डाला है। अवधिज्ञान, जो व्यवहित पदार्थों को स्थानिक व्यवधान के बावजूद जान लेने का गुण लिये होता है, की विशेषताओं की संत यहाँ चर्चा करते हैं। अन्ततः वे केवलज्ञान पर ही या टिकते हैं केवलज्ञानी जैसी आध्यात्मिक उच्च भूमिका को स्वायत्त कर लेता है, सन्त सुखराम की दृष्टि में वह बहुत बड़ी उपलब्धि है। वे उसे अमरत्व के रूप में उपपादित करते हैं। "अमर फल खाय न मरह" इन शब्दों में साधकवयं ने बहुत कुछ कह डाला है, जो मननीय है । । ऊपर उद्धृत दो पदों में दूसरे पद के अन्तर्गत सन्त सुखराम हैं। ब्रह्म पर चित्त को एकाग्र किए बिना धात्मानुभूति नहीं होती। ध्यान का अभ्यास करते रहना चाहिए। ब्रह्म से मिलने का, ब्रह्म-सारूप्य साधने का एकमात्र ध्यान ही अमोध उपाय है वह शुद्ध भागवत् प्रेम से सघता है। इसके अतिरिक्त जो कुछ किया जाता है, कार्यकाण्टिक धर्माचरण ही सही, वह यथार्थ की भाषा में माया के अन्तर्गत ही समाविष्ट होता है। इस पद में भी संत केवलज्ञान की चर्चा करते हैं और केवलज्ञान के बिना सारे कर्म - समवाय को इन्द्रिय-भोग से अधिक नहीं मानते । । सगुण निर्गुण की चर्चा में उनके पदों में एक पद है- बांदा | केवल भेद नियाजी सत्स्वरूप आनंद पद कहिये, सो उपदेश हमारी जी । टेर । ब्रह्मा विष्णु महेश नां पायो, न अवतारां सोई । सुर तेतीस शक्र इन्द्रादिक, नेक न जाण्यो कोई ॥ १ ॥ ग्यानी ध्यानी संत साध रे, नां जोगेसर पावे । दुनियां सकल कोण गिनती में, रोस ब्रह्म लग घ्यावे ॥ २ ॥ बंध मुक्त दोनों के आगे, मुक्त रूप सुण होई । यहाँ लग सकल खबर ले आया, आगे न जाग्यो कोई ॥ ३ ॥ ब्रह्मध्यान की चर्चा करते अतएव साधक को सदैव कहे सुखराम अर्थ जब लाधे, जब ऐसी मत आवे । जब बैरागी होय मर जग में पिता किसब कुण चावे ॥ ४ ॥ साधक को सम्बोधित कर संत कहते हैं - कैवल्य या केवलज्ञान का रहस्य कुछ अलग ही है। उसके प्राप्त होने पर अपने शुद्ध स्वरूप का भान होता है और परम प्राध्यात्मिक प्रानन्द जिसे प्राप्त करने हेतु साधक सदैव सतत की अनुभूति होती है । हमारा यही चरम उद्देश्य है, यत्नशील रहे। यह वह गूढ़ रहस्य है, जिसे ब्रह्मा, विष्णु, शिव तक न जान सके धौर न दूसरे अवतार ही जिसे स्वायत्त कर सके। उसी प्रकार न तेतीस करोड़ देवी-देवता और न उनके अधिनायक इन्द्र आदि इसे जरा भी जान पाये । यह वह निगूढ़तम तत्त्व है, जो ज्ञानियों, ध्यानियों, संतों, साधुत्रों, योगेश्वरों, उद्भट योगियों को भी उपलब्ध नहीं हो सका । इस For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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