Book Title: Tattvachintan ke Sandarbh me Anubhutipurak Satya ka Ek Adbhut Upkram
Author(s): C L Shastri
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 2
________________ चतुर्थ खण्ड | ३४० रामस्नेही संत परम्परा में संत श्री सुखराम जी एक महान साधक हुए हैं। उनका जन्म मरुधरा के अन्तर्गत मेड़ता के समीपवर्ती “बिराई" नामक ग्राम में गुर्जर गौड़ ब्राह्मण परिवार में विक्रम संवत् १७८३, चैत्र शुक्ला नवमी गुरुवार को हुप्रा । संवत् १८७३ कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी को उन्होंने इस नश्वर देह का त्याग किया। वे महान संस्कारी योगी थे । बाल्यावस्था में ही साधना में जुट गये। दैहिक, मानसिक, आध्यात्मिक तपश्चरण द्वारा उन्होंने अद्भुत सिद्धियाँ प्राप्त की, अनुभूतियां प्राप्त की। सिद्धिजनित वैशिष्ट्य-प्रदर्शन से वे सदा दूर रहे। उनकी अनुभूतियों के पद वाणी के रूप में विश्रत हैं। रामस्नेही साधक सन्त-वाणी को सर्वोपरि स्थान देते हैं। उसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण, साथ ही साथ सम्यक् परिरक्षणीय पोर गोपनीय मानते हैं। श्री सुखरामजी म. की वाणी सुरक्षित है । वह तेतीस हजार श्लोक-प्रमाण पदों में है ऐसा कहा जाता है। एक श्लोक में ३२ अक्षर माने जाते हैं। वाणी में अध्यात्म, साधना, जप, ध्यान, मोक्ष प्रादि से सम्बद्ध महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन किया गया है। जैसाकि ऊपर इंगित किया गया है, वहाँ अनेक स्थानों पर जैनपरम्परा के अनेक शब्दों का ठीक जैनपरंपरा-सम्मत प्राशय से प्रयोग हमा है। जैन शब्द "जिन" से बना है। जिन शब्द का अर्थ राग-द्वेष-विजेता है। यों जैन शब्द का अर्थ वह तत्त्वज्ञान है, जो राग-द्वेष-विजयी, जिनके लिये जैनपरंपरा में वीतराग शब्द का प्रयोग हरा है, परम पुरुषों द्वारा प्रतिपादित है, इसलिये उसे वीणराग-विज्ञान कहा है । वाणी का एक पद है वीतराग-विज्ञान होय, इनको शिष होय जाय, जे सतगुरु संसार में जन्म धरे जग मांय । जन्म घरे जग मांय दोष ताहूं नहीं कोई, जो पद केबल ब्रह्म तांय कू दुर्लभ जोई॥ सुखरामदास ए गुरु किया,अब गुरु नहीं जग मांय । वीतराग विज्ञान होय, इनको सीख वे आय ।। यहां सन्त का कथन है कि शिष्य ऐसे पुरुष का होना चाहिए, जो वीतराग-विज्ञान का धारक हो, जिसका जीवन दोषवजित हो, जो सतत ब्रह्मज्ञान में लीन रहे । सेवक सुखराम ऐसे ही गुरु में प्रास्थावान् हैं जो वीतराग-विज्ञान युक्त हो, अन्य में नहीं। सन्त सुखराम ने बहुत थोड़े से शब्दों द्वारा इस पद में बड़े मर्म की बात कही है। बात ऐसी तथ्यपरक है, जहाँ साम्प्रदायिक संकीर्णता का लेशमात्र भी नहीं है। ऐसा ही एक प्रेरक प्रसंग जैन जगत के सुप्रसिद्ध प्राचार्य कलिकाल-सर्वज्ञ विरुद-विभूषित श्री हेमचन्द्रसूरि के साथ घटित हुआ। अपने युग का परम प्रतापी नरेश, गुर्जरेश्वर सिद्धराज जयसिंह प्राचार्य हेमचन्द्र के प्रति बहुत श्रद्धा एवं आदर रखता था। एक बार प्राचार्य हेमचन्द्र और सिद्धराज का सोमनाथ में एक साथ होने का संयोग बना । प्राचार्य हेमचन्द्र सिद्धराज के अनुरोध पर सोमनाथ मंदिर में गये । सिद्धराज ने उनसे सादर निवेदन किया-प्राचार्यवर ! भगवान शिव को प्रणाम करें। प्राचार्य हेमचन्द्र ने तत्काल एक स्तवनात्मक श्लोक की रचना की, जो निम्नांकित है "भवबीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमोऽस्तु सर्वभावेन ॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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