Book Title: Tattvachintan ke Sandarbh me Anubhutipurak Satya ka Ek Adbhut Upkram
Author(s): C L Shastri
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ तत्त्व-चिन्तन के सन्दर्भ में अनुभतिपरक सत्य का एक अद्भुत उपक्रम o आचार्य डॉ. सी. एल. शास्त्री एम. ए. (त्रय), पी-एच. डी. काव्यतीर्थ, विद्यामहोदधि "एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति" यह वैदिक वाक्य बड़ा सारगभित है। सत्य एक है, सर्वथा एक है, उसमें द्वैत नहीं होता । हाँ, इतना अवश्य है, सामान्य बुद्धियुक्त मानवसमुदाय को अवगत कराने हेतु शास्त्रकार, ज्ञानीजन उसे अनेकानेक अपेक्षाओं से, दष्टियों से निरूपित करते हैं। निरूपण वक्त-सापेक्ष और श्रोतृ-सापेक्ष होता है। वक्ता अपने अध्ययन, चिन्तन और शास्त्रज्ञान के अनुसार विवेचना करता है, श्रोता अपनी क्षमता के अनुसार विवेचित तथ्य का श्रवण करता है, उसे स्वायत्त करता है। सत्य की साक्षात् अनुभूति इससे परे है। वह व्यक्ति के अपने प्राभ्यन्तर पर्यालोचन, पर्यालोकन, मनन एवं निदिध्यासन से सधती है। इन सब के माध्यम से एक अन्त:स्फुरण की प्रक्रिया निष्पन्न होती है। सत्य और अन्वेष्टा के बीच में जो शास्त्रगत माध्यम रहता है. तत्त्वतः नैश्चयिक दष्टि से यदि उसे व्यवधान कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा, अपगत हो जाता है। वह सत्य के साक्षात्कार की दशा है। उसे अनुभूति कहा जाता है। जहां साधना अनुभूत्यात्मक स्थिति प्राप्त कर लेती है, वहाँ फिर सम्प्रदायगत, परम्परागत सभी भेद अपने आप में समाहित हो जाते हैं। वैसे साधक किसी भी नाम से अभिहित किये जाएं, किसी भी परम्परा से जुड़े हों, उनका याथाथिक ऐक्य अक्षुण्ण रहता है। मेरे उपर्युक्त विचारों को बहुत बल मिला, जब मैंने परम विदुषी, प्रबुद्ध ध्यान-योगिनी महासती श्री उमरावकुंवरजी म. "अर्चना" से यह सुना कि मारवाड़ के मेड़ता अंचल के प्रास-पास के क्षेत्र में विद्यमान रामस्नेही साधकों की परम्परा में उनकी वाणी में कहीं-कहीं ऐसे संकेत हैं, जहाँ श्राद्यतीथंकर भगवान ऋषभ, चरमतीर्थंकर भगवान महावीर, तीर्थकर चौबीसी, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान तथा केवलज्ञान, तीर्थंकर-पद, वीतराग-विज्ञान आदि का बड़े प्रामाणिक और सुन्दर रूप में उल्लेख, पाख्यान हुआ है। बड़ा आश्चर्य होता है, श्रमण-परम्परा की यह शब्दावली, यह तत्त्व रामस्नेही परम्परा में कैसे विमिश्रित हो गया। उन सन्तों ने स्वतन्त्र रूप से प्रार्हत परम्परा का, तन्मूलक शास्त्रों का अध्ययन करने का अवसर पाया हो, ऐसा कम संभव प्रतीत होता है। ऐसा होते हुए भी उनके शब्दों से जो तथ्य उदभासित हुए हैं, वे शाश्वत, व्यापक और यथार्थ हैं। वह व्यापकता इतनी विराट है कि वहाँ संकेत के लिए केवल नामात्मक भिन्नता का अस्तित्व रहता है, वस्तुवृत्त्या वहाँ मूलतः कोई भेद रह नहीं जाता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9