Book Title: Taranvani Samyakvichar Part 2
Author(s): Taranswami
Publisher: Taranswami

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Page 18
________________ * तारण-वाणी * [१५ तारने वाली परमात्म स्वरूप चात्मा तथा तरने की इच्छुक ( मुमुक्षु ) मेरी आत्मा इन दोनों के मेल से अब मैं मुक्ति में (भाव-मोक्ष में ) रमण कर रहा हूँ। हे मेरे स्वामी ! हे अन्तरात्मा में विराजे हुए परमात्मा ! अब तुम्हारे वचन ही हमारे लिए जिनवर वचन हैं। हे मेरे स्वामी ! तुम्हारी जय हो, जय हो, तुम्हारे वचन धुब हैं- साश्वत हैं, सनातन हैं। वे हो वचन एकमात्र मेरे स्वामी है। उन्हीं की आज्ञानुसार अब मैं चलूंगा । हे स्वामी ! आपकी अज्ञानुसार चलने पर ही इन्द्र कहिये आत्मा धर्मश्रेणी की वृद्धि करेगी पूर्णता को प्राप्त होगी। उस श्रेणी में हमारी आत्मा ध्यान में रत होगी- तल्लीन होगी । उस तल्लीनता में हमारी जो तारन-तरन स्वरूप आत्मा भली प्रकार आनंदित और परमानंदित होगी और वह आनन्द पूरित आत्मा मुक्ति को प्राप्त करेगी। इसके आगे अपना आत्म संतोष प्रगट करते हुए उमंगपूर्ण वचनों में कहते हैं- मैं पाए धुबजिन आपनो मैंने साश्वत जो 'जिन' ( कर्मों को जीतने की सामर्थवान हो जाने वाली श्रात्मा को जो सामर्थशक्ति चतुर्थ गुणस्थान से ही प्राप्त हो जाती है ) उस अपने 'जिन' को पा लिया है व उसी के भीतर जो परमात्मस्वरूप जिनवर उस अपने जिनवर को पा लिया है। आगे इसी अपनी उमंग भावना को पुनः दोहराते हुए कहते हैं- मैं पाये स्वामी आपनो । सुइ सुल्प साहि समाहि, अर्थात् मैंने अपने उस स्वामी को पालिया है कि जिसमें साहि स्वरूप परमात्मा का वास है, मैं पाए तरन जिन आपनो - मैंने अपने तरन जिन को पालिया है। इस तरह अपना आनंद प्रगट करने के पश्चात् भावकों को उपदेश करते हुए कहते हैं- हे भन्यो ! ऐसी ही आराधना और उस आराधना की संभाल तुम करना आदि उपदेश किया है कि 'जिन' अर्थात् अन्तरात्मा को सन्मुख करके ही आलाप याने स्तुति, पूजा, भक्ति इत्यादि समस्त धर्म कार्य व व्यवहार कार्य करना । अंक अंतरात्मा और सब कुछ करना उसके ऊपर अनुस्वार -विंदियां रखना है ।" पात्र विशेष गाथा "पात्र विशेष गाथा" इसमें पात्र दान का बहुत गंभीर निश्चय प्रधान कथन मनन योग्य किया गया है । आप ही दाता है, आप ही पात्र है, आप ही अपने को दान देता है। तीनों ही प्रकार के पात्र अपने-अपने योग्य परिणामों के अनुसार अपने को चारों ही प्रकार का दान देते हैं । वास्तव में जहां स्वानुभव है वहां चारों ही प्रकार के दान हैं। आत्मा को ज्ञान मिल्ला, आत्मानन्द का आहार मिला, आकुलतारूपी रोग मिट कर निराकुलता मिली, सर्व भय से रहित हो निर्भय हो गया । इस तरह जो कोई पात्र दान करते हैं वे मानव जघन्य पात्र से मध्यम पात्र फिर मध्यम से उत्तम फिर उत्तम पात्र से सिद्ध हो जाते हैं । व्यवहार में चार दान देना उचित है। उत्तम पात्र मुनि, मध्यम पात्र व्रती भावक, जघन्य अग्रती सम्यग्दृष्टि भावक हैं। इसमें यह विशेषता बताई कि उत्तम पात्र उन ज्ञानी दृढ़ चारित्रवान साधुओं को कहा है जो अवधिज्ञान की ऋद्धि

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