Book Title: Taranvani Samyakvichar Part 2
Author(s): Taranswami
Publisher: Taranswami

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Page 12
________________ तारण-वाणी * [९ हे भैया ! तो अब तुम्हारा उनका सत्संग तो जन्म भर रहेगा। भाई ! तुम जन्म भर की बात क्यों करते हो, हमारा उनका साथ तो अब ध्रुव रूप से अनन्तकाल के लिए हो गया है । तब हे भैया ! तुम तो जब उनके साथ मोक्ष जाओगे तब वहां पर वे तुम्हें मोक्ष के भी सुख दिखायेंगे ? भाई ! मोक्ष तो वे साथ में ही ले आए हैं और आते हो से हर घड़ी मोक्ष के सब सुखों का दर्शन करा रहे हैं, उधार का काम ही क्या ? हे भाई! तुमने तो आज सब बातें ऐसी की हैं कि मानो तुम ही भगवान हो । भैया ! हम ही ने ऐसी बातें नहीं की हैं सब ही आचायों ने ऐसा ही कहा है और भगवान वर्द्धमान स्वामी ने भी यही बताया था कि भो भव्यो ! तुम सब भगवान हो और तुम्हें यदि मोक्ष आने की इच्छा हो तो अपने-अपने भगवान के साथ में आ जाना। हम तुम्हें अपने साथ नहीं ले जायेंगे और न तुम्हारे बुलाने पर कभी आयेंगे ही। हमारा कोई भरोसा नहीं रखना, नहीं तो धोखे में पड़े रहोगे । अच्छा हे भाई! ठीक वे भी भगवान थे, तुम भी भगवान हो, हम भी भगवान हैं, तो क्या वे हम तुम सब भाई २ की तरह हुए तो उन्हें यह चिन्ता तो होगी ही कि यह हमारे सब भाई आकर मिल जांय ? नहीं भैया ! अब उन्हें किसी से कोई सरोकार किसी वात का रंचमात्र भी नहीं रह गया है "इस फूलना का भावार्थ रूपक बनाकर लिखा है ।" I शून्य उवन फूलना " शून्य उवन फूलना - उब उवन विंद बिंद बिंद जिन होई, सुइ बिंद सुन सुन बिंद समेई ||१|| समय उवन जिनवर बन्ध विलेई, कमल कलन जिन जिनवर सोई ||२|| अचरी उवन उवन सुन्न सुन सुन जिन होई, सुइ सुन्न उवन जिन सुन्न समेई ||३|| सुद्द सुन्न समय सुई सुन्न विंद सोई, विंद सुन्न सम जिनवर हाई ||४| जिन नन्न सुन्न सुइ नन्त विंद सोई; सुइ नन्त नन्त सुन विंद समेई ||५|| सुई स्त्रेनि विंद सुन कलन जिन होइ, सुई कलन सुन्न जिन सुन्न समेई ||६ सुइ कलन संनि जिन कलन समेइ, सुइ तार कमल जिन जिनवर सोई || अस०|| ७ || इति " अर्थ- जब आत्म-ज्ञान प्रगट होता है तब वही स्वानुभवी 'जिन' हो जाता है, वह स्वानुभव निर्विकल्प है, उसी अनुभव में ज्ञान समा जाता है ||१|| स्वात्म- रमण का विरोधी बन्ध तव बिला जाता है और यह आत्मा - आत्मारूपी कमल का स्वाद लेता हुआ जिनेन्द्र हो जाता है ||२|| जब साधकों के भावों में शून्यभाव या वीतराग भाव प्रगट होता है तब ही वीतरागी भावों से शून्य जिनेन्द्र होता है । तब निर्विकल्प शून्य भाव सदा बना रहता है, उसी में जिनेन्द्र समा जाते हैं ||३|| वीतरागी शून्य आत्मा ही शून्य भाव का अनुभव करता है। निर्विकल्प अनुभव के होते

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