Book Title: Tantrik yoga Swarup evam Mimansa
Author(s): Rudradev Tripathi
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 4
________________ तन्त्रयोग और चक्र-विज्ञान 'मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध और प्राज्ञा' नामक छह चक्रों के विवरण के साथ ही सहस्रार चक्र का वर्णन योगग्रन्थों में प्राप्त होता है किन्तु तान्त्रिक प्राचार्य इस दिशा में नई खोज करते हुए बहुत आगे बढ़े हुए प्रतीत होते हैं। चक्राराधना की दैनिक प्रक्रिया में मूलाधार से नीचे भी १. अकुल सहस्रार और २. विषुवत् चों का विधान अर्चनार्चन है। मूलाधारादि छह चक्रों में १. स्वाधिष्ठान, २. मणिपूर, ३. अनाहत और ४. विशुद्ध । बने चक्र अधोमुख भी है साथ ही पूर्वादि दो दो दिशाओं के योग से हुए अग्नि वायु-ईशाननैऋत्य कोणात्मक चार चक्रों का चिन्तन विधान भी तन्त्रों में दिखलाया गया है । श्रीविद्या के दक्षिणामूर्ति मत में एक 'स्वस्तिक चक्र' और माना जाता है जिसका स्थान मणिपूर और अनाहत के बीच ठीक (ह्याकुला STERNUM ) के पीछे होता है। इसका आकार स्वस्तिक के समान है और यह श्वेतवर्णी है। चित्तरूप हरिहर का इसमें मनन होता है तथा इसमें आठ दल हैं जिनमें "अं कं चं टं तं पं यं शं" ये आठ अक्षर अंकित रहते हैं । 'प्राणतोषिणी' तन्त्र में एक चौंसठ दलवाले 'ललनाचक्र' की तालु में स्थिति मानी है । इस चक्र से पूर्व 'लम्बिका चक्र' है जो कि विशुद्ध और आज्ञा के मध्य माना गया है । प्राज्ञा के ऊपर 'गुरुचक्र' शतदल की स्थिति, ब्रह्मरन्ध्र में तथा किसी-किसी ने 'सोमचक्र, मानसचक मोर ललाटचक्र' का भी वर्णन किया है । यह 'कालीकल्प' के अनुसार 'द्वादशाचक्र' का सूचक है । Jain Education International पंचम खण्ड / २०६ प्राशावक को 'कालीकल्प और सुन्दरीकल्प दोनों में विभक्त मानकर योगतन्त्रानुसार आज्ञाचक्र से एक-एक अंगुल ऊपर के भागों में सप्तकोश नामक 'मनश्चक्र' धीर १ बिन्दु, २- अर्धचन्द्र, ३- रोधिनी, ४- नाद, ५- नादान्त, ६- शक्ति, ७- व्यापिका ८ समना, ९- उन्मनी तथा १० महाबिन्दु' की भी कल्पना की गई है। 'यतिदण्डेश्वयं विधान' में यह चक्र-क्रम १०८ तक पहुँचता है। यथा अष्टोत्तर शते चक्र े मन्त्र - पिण्डाक्षरात्मके । द्विशतात्मा पुनः प्रोक्त उदयः सर्वसिद्धियः ॥ इत्यादि ॥ तान्त्रिक योग और सिद्धियाँ सिद्धियों का वर्णन योगशास्त्र में वर्णित है जिनकी प्राप्ति को लक्ष्य में बाधक बतलाकर महामुनि पतञ्जलि ने उनसे बचने का भी सत कर दिया है। किन्तु उन सिद्धियों को यदि कल्पित रूप में प्राप्त किया जाता है तो वे बाधक न होकर साधक ही बनती हैं। इस दृष्टि से सिद्धि के दो प्रकार माने इनमें प्रथम प्रकल्पित सिद्धि के लिए लिए कहा गया है कि- - गये हैं- १. अकल्पितसिद्धि और २ कल्पितसिद्धि | तन्त्रोक्त योग की नितान्त आवश्यकता होती है। इसके मन्त्राणां जपतो योगाद् धारणा-ध्यानतस्तथा । न्यासात् सम्पूजनाच्चैव सिद्धयन्ति सिद्धयस्तु याः ॥ अकल्पितास्ताः सम्प्रोक्ताश्चिरकाल - सुखप्रदाः । प्रान्ते ब्रह्मपद प्राप्तावपि साहाय्यकारिकाः ।।३।९-१०॥ य. व. दि मन्त्रजप, योग, धारणा, ध्यान, ग्यास एवं पूजन से प्राप्त ऐसी प्रकल्पित सिद्धि ब्रह्मपद For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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