Book Title: Tantrik yoga Swarup evam Mimansa
Author(s): Rudradev Tripathi
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ अर्चनार्चम पंचम खण्ड | २०४ ने अपनी-अपनी दृष्टि से भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ भी दी हैं । तथापि 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' इस पातञ्जल-योगसूत्र पर ही हमारा ध्यान जाता है और वस्तुत: इस परिभाषा के अनुसार चित्तवृत्ति का निरोध और तदर्थ किये जाने वाले साधनों का नाम 'योग' समझा जाता है। यौगिक प्रक्रियाओं के सम्बन्ध में प्राचार्यों ने बड़े ही विस्तार से विवेचन किया है और योग के अङ्ग-प्रत्यङ्गों का निरूपण भी पर्याप्त विस्तृत प्राप्त होता है। 'राजयोग, हठयोग मन्त्रयोग और लययोग' के नाम से चार विभागों में विभक्त यौगिक क्रियाओं के विस्तार के साथ ही कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि अनेक योगों का सांगोपांग विवेचन भी ग्रन्थों में किया गया है । व्याकरण की दृष्टि से युज् धातु के अर्थ-१. जोड़ना=संयोजित करना और २.समाधि = मन की स्थिरता हैं। प्रायः सभी चिन्तकों ने इन दोनों अर्थों को आधार बनाकर 'योग' का सम्बन्ध जोड़ने के लिये अपनी-अपनी परिभाषाएँ दी हैं जिनमें धर्मव्यापार, आध्यात्मिक भावना, समता-विकास, मनोविकारक्षय, मन-वचन-कर्म-संयम, आत्मविशुद्धि आदि के लिए की जाने वाली साधना के द्वारा आत्मा को मोक्ष के साथ संयोजित करने का भाव समाविष्ट है । जैन और बौद्ध सम्प्रदाय में भी ऐसी ही भावना को अभिव्यक्ति देने वाले कर्मविशेष को योग कहा है किन्तु उन्होंने अपने-अपने कतिपय पारिभाषिक शब्द भी इसके निमित्त निर्धारित कर लिये हैं, जो उनके आगमों और पिटकों की परिधि में प्रविष्ट प्रक्रियाओं के परिशीलन के साथ ही साम्प्रदायिक साधनातत्त्वों को भी परिलक्षित करते हैं। योग-परम्परा में 'ज्ञान और क्रिया' का अनठा समन्वय रहता है। ये दोनों जब बाह्यभाव से अनुष्ठित होते हैं तो इनके द्वारा उत्तम स्वास्थ्य, आन्तरिक उल्लास, शरीरावयवों की समुचित सुदढता एवं कार्यक्षमता, रोगनिवत्ति, द्वन्द्वसहिष्णुता प्रादि गुण विकसित होते हैं, जो कि व्यवस्थित प्रान्तरिक-साधना के लिए भी नितान्त आवश्यक होते हैं। जब अन्तर्भाव से योगानुष्ठान किया जाता है तो उसमें भी ज्ञान के साथ क्रियाएँ की जाती हैं, जिनमें अष्टांग और उनके विभिन्न भेदों से निर्दिष्ट अन्य अंगों का प्रबोधन-विधान भी किया जाता है। इस अनुष्ठान के द्वारा साधक शरीर के अन्तर्गत स्थूलचक्र, सूक्ष्मचक्र, प्रमुख नाडीतन्त्र, गुच्छरूप में स्थित नाडीसमूह तथा उनके क्रियाकारित्व के उन्मेष से प्रभावित होने वाली विधियों को न केवल योग मूलक अंगानुसाधन से ही समाध्युन्मुख बनाता है, अपितु बीजमन्त्र, नाममन्त्र एवं इष्टमन्त्रों से सिद्धि-शिखरासीन भी करता है । १. प्रमाण के लिए निम्नलिखित मूलांश दर्शनीय हैं: (क) योग प्रात्मा (तैत्तिरीयोपनिषद् २।४), (ख) तं योग मिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम । अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययो॥ (कठोपनिषद् ६।११) (ग) अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्ष-शोको जहाति । (वही १।२।१२) (घ) तत्कारणं सांख्ययोगाधिगम्यं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः। (श्वेताश्वतरोपनिषद् ६।१३) (ङ) तथा-तैत्ति० २।४, कठ० २।६।११, श्वेता० २१११, ६।३; १११४, छान्दो० ७।६।१; ७।६।२; ७७।१; ७।२६।१; कौशीत कि० ३१२; ३।३; ३।४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6