Book Title: Tantrik yoga Swarup evam Mimansa Author(s): Rudradev Tripathi Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 6
________________ पंचम खण्ड/२०८ अनार्चन का समीकरण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है। ऐसे बीजाक्षरों को संयुक्त करके ही पिण्डाक्षर एवं कुटाक्षर बनाये जाते हैं और उन्हें यन्त्र-पद्धति से अंकित करके उपासना की जाती है। कूटमन्त्रों का उद्धार करने के लिये तत्वात्मक बीजों के उद्भव को भी जान लेना आवश्यक होता है। जैसे 'ल' पृथ्वी का बीज है। पञ्चीकृत पृथ्वीतत्त्व कहने से इस लॅ बीज ही बोध होता है। हलन्त 'ल' भी पृथ्व्यात्मक है परन्तु यह बीज अपञ्चीकृत पृथ्वीतत्त्व का वाचक है। अन्य बीज भी ऐसे हलन्त रूपों में अपञ्चीकृत तत्त्वात्मक ही होते हैं / हलन्त मकार 'म्' में अपञ्चीकृत तत्त्वात्मक बीज का योग करने से वह सार्थक बनता है। इसीलिये समस्त बीजों में अनुस्वार-संयोजन का प्रचलन है। 'ई' और 'ऊ' इन दो अक्षरों को बीज कहने पर ऊ से व्यापकत्व का बोध होता है और 'ई' कहने से व्यापकसत्ता का बोध होता है / इस प्रकार 'ऊ' आकाश बीज व्यापकत्व वाचक है और 'ई' मायावाचक व्यापकसत्ता का वाचक है / अत: जब कमलदल पर शक्ति का समष्टिरूप अंकुरित होता है, तो उस अवस्था में जिस दैवीशक्ति के मन्त्र का प्रादुर्भाव होता है, उसके नाम का प्रादि अक्षर प्रारम्भ में और तत्पश्चात् अर्थपरक मकार, फिर पृथ्वी आदि चार तत्त्वों का अपंचीकृत रूप और तब प्राकाशतत्त्वात्मक 'ॐ' कार रूप संयुक्त होकर कुटाक्षर मन्त्र का निर्माण होता है। समस्त डाकिनी, राकिनी, लाकिनी प्रादि चक्राधिष्ठात्री शक्तियों के बीजाक्षरों की उत्पत्ति इसी प्रकार होती है। मुख्यतः छह चक्रों की शक्तियों के आद्याक्षर 'ड-र-ल-क-स-ह' हैं। इनके अतिरिक्त प्रत्येक दल में स्थित वर्णों की शक्तियों के नामों से भी आद्याक्षर लेकर उनके बीजाक्षर लिये जाते हैं / सम्पूर्ण मातृका-वर्गों के जब कटाक्षर बनाये जाते हैं, तो उनमें 'मलवरयऊ' ये छह अक्षर और जोड़ दिये जाते हैं / यथा उमलवरयू, रमलवरयूं, लमलवरयूं आदि / वस्तुतः बीजमन्त्रों का सिद्धान्त अत्यन्त यान्त्रिक है। जिस अक्षर का उच्चारण होता है चाहे वह वैखरी, मध्यमा या पश्यन्ती प्रादि किसी भी रूप में हो और वाचक, उपांशु अथवा मानसिक विधि से किया गया हो उसके द्वारा नाड़ी के तत्सम्बन्धित पुंजरूपी कल्पित चक्र के दल पर श्वास का विशेष धक्का लगता ही है जिससे उस दल में उसी अक्षर की भावना होती है। वर्णमाला के कौन-कौन से अक्षर किस-किस चक्र के दलों पर अंकित माने गये हैं अर्थात उनकी उत्पत्तिभूमि कहाँ पर है, इसके लिये चक्रों का ज्ञान प्रावश्यक है। यह सब विषय तान्त्रिकयोग की परिधि में ही वर्णित है अतः इस योग की सूक्ष्मता से परिशीलन होना चाहिये। -निदेशक ब्रजमोहन बिड़ला शोध-केन्द्र उज्जैन (मध्यप्रदेश) 40 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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