Book Title: Tamso ma Jyotirgamayo
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ स्वकीय भारतीय मानस की एक अन्तर्ध्वनि सदा-सदा से गूंजती रही है । असतो मा सद्गमय मृत्यो मा अमृतं गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मुझे असत् से सत् की ओर ले चलो, मुझे मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो, मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, असत्, मृत्यु और अंधकार - सदा ही भयानक, और परिय रहे हैं । अन्धकार क्या है ? सूर्य या चन्द्र के प्रकाश का अभाव ही अन्धकार नहीं है । सबसे बड़ा अन्धकार प्राणी के हृदय के भीतर छुपा है और वह है अज्ञान, मोह ! मिथ्यात्व ! णाणं पयासरं - ज्ञान ही प्रकाश है, अज्ञान ही अन्धकार है । इसलिए अन्नाणं परियाणामि णाण उवसंपज्जामि - अज्ञान' को त्यागता हूँ ज्ञान को प्राप्त करता हूँ - यह विकासशील आत्मा का संकल्प है, उसकी अभीप्सा है । चिन्तन, मनन, अध्ययन से ज्ञान का विकास होता है, विस्तार होता है, ज्ञान निर्मल और प्रभास्वर बनता है । स्वाध्याय ज्ञान विकास का मुख्य द्वार है - स्वाध्याय के लिए सत् साहित्य की आवश्यकता और उपयोगिता है । सत् साहित्य के स्वाध्याय से मनुष्य का अन्तर नेत्र उद्घाटित होता है । विचारों की स्फुरणा जगती है । प्रस्तुत पुस्तक " तमसो मा ज्योतिर्गमय” अन्धकार से प्रकाश यात्रा का शुभारम्भ है । इसमें विभिन्न विषयों पर चिन्तन प्रधान, आगमिक तत्व ज्ञान युक्त १५ निबन्ध हैं । ये निबन्ध विभिन्न समयों पर पर लिखे गये हैं । इसलिए इनमें विविधता है । विषयों की और बहुआयामी चर्चाएँ हैं । विभिन्न विषयों व्यापकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 ... 246