Book Title: Tamilnadu me Jain Dharm Author(s): Mallinath Jain Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf View full book textPage 2
________________ साधना का महायात्री: श्री सुमन मुनि इसके प्रत्येक में छह-छह भेद हैं। उत्सर्पिणी के छह रोग नहीं होता था। भोजन की कमी न होने के कारण भेद यह हैं - (१) दुषम-दुषमा (२) दुषमा (३) दुषम- किसी भी तरह का मन चंचल नहीं होता था। अकाल सुषमा (४) सुषम-दुषमा (५) सुषमा (६) अति सुषमा । मरण एवं बुढ़ापा न होने के कारण किसी भी तरह की अवत्सर्पिणी के लिए इसे उल्टा समझना चाहिए। दिक्कत के बिना भोग भोग कर सानंद काल यापन करते संस्कृत भाषा में “सु' माने श्रेष्ठ है। 'दुर' माने घनिष्ठ थे। दस प्रकार के कल्पवृक्ष होने के कारण उनको आजीविका है। इस तरह समा के साथ (स) और (दर) मिलने से की सारी चीजें बराबर मिलती रहती थी। किसी तरह का 'सुषमा' और 'दुषमा' की उत्पत्ति होती है। 'सुषमा' कहे। कष्ट नहीं होता था। वहाँ की जमीन और उत्पन्न होने तो बढ़िया और 'दुषमा' कहे तो 'घटिया'। वाली सारी चीजें एक व्यक्ति के अधीन न होकर समाज की होने से सभी लोग समान रूप से अर्थात उच्च-नीचता __ इस तरह अवत्सर्पिणी काल का पहला जो भेद है के बिना समान रूप से जीविका चलाते थे। हर चीजें हर उसका काल परिमाण चार कोड़-कोडी सागर परिमाण है। वक्त मिल जाने के कारण भविष्य के लिए वस्तुओं को दूसरे का तीन कोड़-कोड़ी सागर है। तीसरे का दो कोड़ा संग्रह करने की जरूरत नहीं पड़ती थी। इन्हें अपरिग्रही कोड़ी सागर है। चौथे का बयालीस हजार वर्ष कम एक कहे तो आश्चर्य की बात नहीं है। वस्तुओं की कमाई कोड़ा-कोड़ी सागर है। पाँचवे का सिर्फ इक्कीस हजार वर्ष है। छट्टे का भी इक्कीस हजार वर्ष है। एवं रक्षा से होने वाले कसूरों से मुक्त रहते थे। इस काल को भोगभूमि काल कहा जाता था। यह उत्तम, मध्यम ___ इस तरह अवत्सर्पिणी का कुल दस कोड़ाकोडी सागर और जघन्य के भेद से विमुक्त था। सम मानव समुदाय काल परिमाण है वैसे ही उत्सर्पिणी का काल परिमाण कहें तो युक्ति युक्त कहा जा सकता है। आजकल भी समझना चाहिए। सागर कहे तो बड़ा लंबा है। वह अपने ऐसा आनंदमय जीवन बिताने का सौभाग्य मिलता तो समझ के बाहर है। कितना अच्छा होता। ___ एक जमाने में भरत क्षेत्र के अंदर अवत्सर्पिणी का इस तरह का पहला, दूसरा, तीसरा भोगभूमि काल जो पहला अति सुषमा आरा चल रहा था उस जमाने के बीत गया। चौथा कर्म भूमि का काल आया। उसी समय लोग वज्र के समान दृढ़ शरीर और सोने के समान तीर्थकर आदि महापुरुषों का जन्म होता है। उक्त काल कान्तिवाले थे तथा वे अच्छे बलशाली, शूरवीर तेजस्वी में चौबीस तीर्थंकर महापुरुषों ने जन्म लिया वे सब के सब एवं पुण्यशाली होते थे। उनकी आयुष्य तीन पल्य की । करुणा के सागर होने के नाते सारी जीव राशियों के थी। उसी तरह नारियां भी रूप-लावण्य एवं आयु आदि । उत्थान के लिए अहिंसा प्रधान जैन धर्म का प्रचार करते से ओत-प्रोत थी। उस समय के स्त्री-पुरुष आपस में बड़े थे। उनका उपदेश यह था कि सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और प्रेम भाव के साथ रहते थे। उन लोगों की इच्छापूर्ति सम्यग् चारित्र की आराधना से मोक्ष की प्राप्ति है। हर कल्पवृक्षों से होती थी। वे लोग भूख, प्यास, बुढ़ापा, एक व्यक्ति का कर्तव्य यह है कि उनकी आराधना रोग, अपमृत्यु, दुःख आदि कष्टों से दूर होकर बड़े आनंद अवश्य करनी चाहिए। इस महामंत्र का उपदेश दूसरों को के साथ अपना जीवन बिताते थे। देने के साथ-साथ खुद भी उनका आचरण कर मार्गदर्शी शरीर मजबूत होने के कारण उन्हें किसी तरह का होते हुए मोक्ष सिधारे। तमिलनाडु में जैन धर्म | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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