Book Title: Tamilnadu me Jain Dharm Author(s): Mallinath Jain Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf View full book textPage 1
________________ तमिलनाडु में जैन धर्म कालचक्र जैन धर्म विश्वधर्म है । यह अनादि है ऐसी बात है तो भगवान् ऋषभदेव के पहले भी जैन धर्म था । इस बात को स्वीकार करना पड़ेगा। जब विश्व है तो उसके साथ-साथ धर्म भी है । म्लेच्छ खण्ड में धर्म नहीं रहता परंतु आर्य खंड में धर्म निरंतर रहता ही है । वहाँ तो तीर्थंकर भगवन्त जन्म लेते हैं । भूतकाल के भी चौबीस तीर्थंकर माने गये हैं । वे सब पहले हो चुके हैं। इस तरह अनादि धर्म परम्परा चलती आ रही है । कालचक्र निरंतर घूमता रहता है । प्राचीनकाल में तमिलनाडु प्रदेश में जैन धर्म का व्यापक प्रचार था। अनेक जैनाचार्यों यथा- कुंदकुंद, अकलंक, समन्तभद्र, पूज्यपाद, जिनसेन, मल्लिषेण आदि धुरंधर विद्वानों के धर्म प्रचार की यह पावन भूमि रही है। यहाँ के श्रमणों ने अनेक नीति ग्रन्थों व अन्य विषयों की रचनाएं की। तिरुक्कुरल, नालडियार, अरनेरिघारं आदि ग्रन्थों का प्रणयन किया । अनेक राजाओं ने इस धर्म को प्रोत्साहन दिया । श्रमणों एवं श्रमणियों ने जन-जन में सदाचरण, अहिंसा, व्रतनिष्ठा आदि का व्यापक प्रचार करके इस धर्म को जन धर्म बना दिया। तमिलनाडु में जैन धर्म के प्रवाह के इतिहास को प्रवाहित कर रहे है दक्षिण के सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री मल्लिनाथजी जैन 'शास्त्री' । 1 - सम्पादक विद्वान् लोग काल को 'चक्र' के साथ समावेश करते हैं । अर्थात् चक्र जैसे घूम कर स्थान परिवर्तन करता है - वैसे काल भी परिवर्तन करता रहता है । हमेशा एक ही स्थिति पर नहीं रहता यह उसका स्वभाव है । इसे हम अपने जीवन काल में भी देखते हैं । हम स्वयं कहते हैं कि अपना जीवन-काल निकलता जा रहा है। अर्थात् यह काल परिवर्तनशील है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि काल एक वस्तु है और उसका परिवर्तन होता रहता है । इस तरह के परिवर्तनशील काल को ही दुनिया संसार के नाम से पुकारती है। संसरणं संसारः अर्थात् परिवर्तन होना संसार है । यह परिवर्तन हमेशा होता रहता है। तमिलनाडु में जैन धर्म Jain Education International जैन संस्कृति का आलोक पण्डितरत्न मल्लिनाथ जैन 'शास्त्री ' संसार का विशेषतः अर्थ यह है कि परिवर्तन होते रहना । यह परिवर्तन नया नहीं है। इसे हम अपने जीवन काल में भी देखते हैं। अर्थात् जीवन काल में उत्थान-पतन होना, इस परिवर्तन का आधार है । उत्थान - पतन (ऊँचा- नीचा) आपस में सम्बन्ध रखता है । जहाँ पर उत्थान है वहाँ पतन भी मौजूद है। इसके उदाहरण में हम कह सकते हैं कि खेल में जो व्यक्ति गिरता है फिर वह उठता ही है । तथा चक्र का अधोभाग ऊपर आना और ऊपर का भाग नीचे जाना स्वाभाविक है । इसी तरह उत्थान - पतन का स्वरूप भी देख सकते हैं। इसका निष्कर्ष यह है कि उत्थान-पतन वाला ही संसार है। For Private & Personal Use Only यह संसार जब पतन से उत्थान की ओर जाता है तब उसे उत्सर्पिणी काल कहते हैं । और उत्थान से पतन की ओर जब आता है तब उसे अवत्सर्पिणी काल कहते हैं । उत्सर्पिणी काल में मनुष्यों की आयु, शक्ति और ऊँचाई आदि अभिवृद्धि की ओर बढ़ती जाती है । अवसर्पिणी काल में ऊपर की सभी बातें कम होती जाती है । इसके उदाहरण में चन्द्रमा के पूर्व पक्ष और अपर पक्ष कला की उपमा दे सकते हैं। इस तरह उत्सर्पिणी के बाद अवत्सर्पिणी और अवत्सर्पिणी के बाद उत्सर्पिणी बदलती रहती है । यह काल परिवर्तन का स्वभाव है । ११५ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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