Book Title: Tamilnadu me Jain Dharm
Author(s): Mallinath Jain
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 10
________________ साधना का महायात्री: श्री समन मनि संबंधन को दैवी शक्तिमान एवं शिवजी के दूत के राजा पेट दर्द ठीक हो जाने से वह राख की महिमा समझ रूप में प्रचलित किया जाता था। यह बात राजा पाण्डय। कर स्वयं शैव भक्त बन गया, नहीं-नहीं, बना दिया गया का आमात्य “कुलच्चिरै” को मालूम हुई । वह पक्का शैव । था। देखिए कैसी विडंबना है ? भक्त था। पाण्ड्य नरेश जैन धर्मावलंबी था। अमात्य ने राजा को अपनी इच्छा के अनुसार शैव बना लिया रानी "मंगैयर्करसी" को येन केन प्रकारेण शैव धर्मानुयायिनी गया, उन लोगों के नाटक का दूसरा मंच भी पूरा हो गया बना लिया था। फिर क्या था ? ये दोनों मिलकर जैन था। फिर क्या था? राजा को वश में रखकर श्रमणों धर्म को खत्म करने के कार्य में षडयन्त्र करने लगे। (जैनों) को खतम करने का काम बाकी था। उसके लिए इन दोनों में संबंधन (शिवदूत) को मथुरा (दक्षिण) । भी जो करना था वह भी शुरू कर दिया गया। वह यह बुला लिया। वहाँ एक मठ में उसे ठहराया गया था। था कि श्रमणों (जैनों) के साथ शास्त्रार्थ किया जाय उसमें संबंधन के द्वारा श्रमण (जैन) धर्म के विरुद्ध खूब प्रचार जो हार जाते हैं, उन सबको शूली पर चढ़ाकर मार दिया किया गया। बाद में उन्हीं लोगों ने उस शैवमठ पर आग जाय। इसके लिए शिवजी से सिफारिश मांगी गई थी। लगा दी उल्टा प्रचार इस तरह किया गया था कि जैन हर एक कार्य में श्रमणों को खतम कर देना - इसका भार लोगों ने ही शैव मठ पर आग लगा दी। उस समय जैनों। शिवजी के ऊपर डाल दिया जाता था। ये सारी बातें पर जितना उपद्रव करा सकते थे उतना किया गया था। संबंधन तेवारं में आती हैं। परंतु यहाँ समझने की बात यह उसके बाद दूसरा नाटक तैयार किया गया था कि है कि संबंधन ने अपने तेवारं ग्रंथ में यह बात नहीं लिखी शिवदूत नाम का जो संबंधन था, उसके मुँह से शाप थी, अर्थात् श्रमण लोगों के द्वारा शैव मठ को आग लगा दिलाया गया था कि शैव मठ पर जो आग लगा दी गई। दी गई थी। इस बात से जान सकते हैं कि जैनों पर थी उसके दंडस्वरूप राजा पांड्य के पेट में भयंकर दर्द हो शैवमठ के ऊपर आग लगाने का आरोप बिल्कुल कल्पित जाय। रानी शैव धर्मानुयायिनी तो थी ही उसने छिप छिपाकर राजा के भोजन में पेटदर्द होने की दवाई दे दी फिर श्रमणों के साथ (जैनों) शास्त्रार्थ (वाद) करने थी राजा पेट के दर्द के मारे तड़पता था । श्रमण (जैन) का निश्चय किया गया था। शास्त्रार्थ वह कहलाता है कि लोगों ने बढ़िया दवाईयाँ दी थी। रानी बहाना बनाकर स्वपक्षी प्रश्न पूछेगा, उसका विपक्षी जवाब देगा। जवाब उसे नहीं खिलाती थी। उसका विचार यह था कि किसी न देने पर उसे हारा हुआ समझा जाता है। मगर यहाँ पर न किसी तरह से राजा को शैव बनाना है। फिर संबंधन विचित्र शास्त्रार्थ था। वह यह था कि अपने पक्ष के को बुला लिया गया। उसने आकर “शिवायनमः' कहते ताड़पत्र को लिखकर पानी में डाला जाय, उनमें जिसका हुए पेट के ऊपर विभूति लगायी। पेट दर्द फौरन ठीक पत्र पानी के प्रवाह में बह जाय वह हार गया है। जिसका हो गया। विचार करने की बात यह है कि कोई भी उल्टा वापस आवे वह जीता हुआ समझा जायेगा। यह बीमारी हो दवाई से ही ठीक हो सकती है। वहाँ दवाई है कैसा शास्त्रार्थ था पता नहीं ? उन शैव लोगों वाली गाली नहीं सिर्फ राख से हो जाती है। क्या यह बात विश्वास में लिखते हैं कि “सावायुं वादुसेय समणर ठाल" अर्थात् करने लायक है ? बिलकुल नहीं। यह नाटक तो सिर्फ जैन लोग मरते दम तक वाद (शास्त्रार्थ) करने वाले हैं। मत (धर्म) प्रचार के सिवाय और कुछ नहीं है। अनभिज्ञ इसलिए छल-कपट के द्वारा जैनों पर हार की छाप लगा ३ तमिलरवीच्चि ४ संबंधन तेवारं वेदवेल्वियै । तमिलनाडु में जैन धर्म | | १२४ Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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