Book Title: Syadwad Siddhant Ek Anushilan Author(s): Devkumar Jain Shastri Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 3
________________ K AJAL . . . . . . . . आचार्यप्रव3 मिलापार्यप्रवर आभिनय श्रीआनन्दा श्रीआनन्द अन्य ३०८ धर्म और दर्शन एक ही व्यक्ति में पितृत्व, पुत्रत्व, भ्रातृत्व आदि अनेक स्थितियों का समावेश है, किन्तु वक्ता अपनीअपनी अपेक्षाओं की मुख्यता और गौणता के दृष्टिकोण से उसे संबोधित करता है और वे अपेक्षायें उस-उस दृष्टिकोण से सत्य मानी जाती हैं। 'स्यादवाद' स्यात् और वाद इन दो शब्दों से निष्पन्न यौगिक रूप है। इनमें 'स्यात्' शब्द का अर्थ एक अपेक्षा से और 'वाद' शब्द का अर्थ कथन करना है। अर्थात् अपेक्षा विशेष से अन्य अपेक्षाओं का निराकरण नहीं करते हुए वस्तु-स्वरूप का प्रतिपादन करना 'स्याद्वाद' कहलाता है। प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्मों की सत्ता है, यह पूर्व में संकेत किया गया है। वह सत्ता उस पदार्थ में विद्यमान अन्य धर्मों की प्रतिरोधक नहीं है। स्याद्वाद उन अनन्त धर्मों की विद्यमानता का निश्चय कराता है और उनको बतलाने के लिए 'स्यात्' शब्द समस्त वाक्यों के साथ प्रगट या अप्रगट रूप से प्रयोग करता है अथवा सम्बद्ध रहता है। वस्तु और उसके विविध आयामों का जानना उतना कठिन नहीं है, जितना शब्दों द्वारा उनका कथन करना कठिन है। एक ज्ञान अनेक आयामों (धर्मों) को एक साथ जान सकता है, किन्तु एक शब्द एक समय में वस्तु के एक ही धर्म का आंशिक कथन कर सकता है। वह अनेक धर्मों में से किसी एक धर्म का मुख्यता से वचन-व्यवहार करता है, क्योंकि अनेकधर्मात्मक वस्तु में जिस धर्म की विवक्षा होती है, वह धर्म मुख्य और इतर धर्म गौण कहलाता है। वक्ता के वचनव्यवहार के दृष्टिकोण को समझने में श्रोता को कोई धोखा न हो, यह स्याद्वाद का हार्द (आशय) है। समस्त संसार परस्पर विरोधी बातों से भरा पड़ा है। ऐसी स्थिति में उनका परिहार किसी एक ही पक्ष को अङ्गीकार करने से नहीं किन्तु अभीप्सित अभिधेय को मुख्य और अनभीप्सित को गौण मानकर किया जा सकता है। पदार्थों में परस्पर विरोधी धर्मों के सहतित्व का कारण यह स्पष्ट तथ्य है कि विश्व की प्रत्येक वस्तु अपने सत्-अस्तित्व से समन्वित होकर भी असत्-नास्तित्व से सहित है और यह क्षणक्षयता-अनित्यता भी सत् अंश से विहीन नहीं है। यह अस्तित्व क्यों है ? अस्तित्व का अर्थ है सत् की प्राथमिकता । सत्ता का अर्थ प्रत्येक संभव निषेध का त्याग और स्व की शुद्ध स्वीकृति है। यह सत् और असत् दोनों है। यदि असत्-नास्तित्व न हो तो कोई अस्तित्व, कोई सत्ता, कोई अभिव्यक्ति नहीं होगी। यह असत् है जो सत् को अभिव्यक्त होने को प्रेरित करता है। असत् उस सत् पर आश्रित है, जिसका वह निषेध करता है । असत् शब्द स्वयं ही असत् पर सत् की दार्शनिक प्राथमिकता को व्यक्त करता है। यदि पहले सत् न हो तो कोई असत् नहीं हो सकता। सत् अपने अन्दर स्वयं को और जो उसके प्रतिकुल या विरुद्ध है, उस असत् को भी रखता है। असत् सत् का ही अंश है । वह उससे अलग नहीं किया जा सकता। इसलिये प्रत्येक वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों का सहवर्तित्व स्वतः सिद्ध हो जाता है। यह सहवर्तित्व एक ही वस्तु में अविरोध रूप से रहता है और प्रत्यक्षादि प्रमाणों से प्रमाणित होता है । इनके सहवर्तित्व के कारण वक्ता प्रश्नानुसार विधि-प्रतिषेध का आश्रय लेकर वाग्-व्यवहार करता है। __एक ही वस्तु में यद्यपि परस्पर विरोधी धर्मों का अवस्थान कुछ असमंजस में डाल देता है परन्तु मध्यस्थ एवं तटस्थ दृष्टि से अथवा 'मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे' के भावानुसार विचार करें तो असामंजस्य की स्थिति स्वतः दूर हो जाती है। एक ही दृष्टि से वस्तु नित्य और अनित्य कदापि नहीं हो सकती, किन्तु वे परस्पर विरोधी धर्म अपने-अपने स्वरूप से रहते हुए भी दूसरे का अपलाप नहीं करते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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