Book Title: Syadwad Siddhant Ek Anushilan Author(s): Devkumar Jain Shastri Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 2
________________ ३०७ स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन कभी-कभी जैन दर्शन के बारे में कहा जाता है कि वह अवसरवादी है । इसीलिए उसने अपनी तात्विक चिन्तन प्रणाली में अनेक परस्पर विरोधी बातों का समावेश कर लिया है और उसका अपना कुछ भी नहीं है । परन्तु गम्भीरता से विचार करने पर उक्त धारणा निर्मूल सिद्ध हो जाती है, क्योंकि परस्पर विरोधी बातों का समावेश किसी व्यावहारिक सुविधा के विचार से जैनदर्शन में नहीं किया गया है परन्तु पदार्थों की वैसी स्थिति और चिन्तन-मनन- कथन की स्वाभाविक परिणति के कारण सहज रूप में ऐसा हो ही जाता है । अतएव इस बात को स्पष्टतया समझने के लिए तत्व विषयक स्थिति को समझ लेना युक्ति-संगत होगा । जैन दर्शन की तत्व विषयक भूमिका हम प्रत्यक्षतः विश्व की संरचना, विकास, विनाश और व्यवस्था की प्रक्रिया में परस्पर विरुद्ध गुण-धर्मों वाले दो पदार्थों को देख रहे हैं । हमारा अनुभव भी इस स्थिति को प्रमाणित करता है । उनमें एक सचेतन (सजीव) और दूसरा अचेतन ( अजीव ) है । अनेक चिन्तकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से इस सम्बन्ध में विचार व्यक्त किये हैं । कुछ चिन्तकों ने सिर्फ एक चिदात्मक ( सचेतन) द्रव्य ही जगत् के शेष पदार्थों को माया जाल बतलाया है । परन्तु क्या यह है ? क्या इन दृश्यमान पदार्थों का अपने विभिन्न रूपों में अस्तित्व नहीं है ? कुछ दूसरे चिन्तकों ने केवल भौतिक पदार्थों की सत्ता स्वीकार की है और उन्हीं के मेलजोल से चैतन्य की उत्पत्ति मानी है । लेकिन क्या यह संभव है कि विजातीय गुण, जाति, स्वभाव वाली वस्तु से उससे विपरीत गुण-धर्म-स्वभाव वाली वस्तु की उत्पत्ति हो जाये ? स्वीकार किया है और दृश्यमान दृश्यमान जगत् मिथ्या है, असत् जैन दर्शन जीव- अजीव दोनों तत्वों को स्वीकार करता है। दोनों का अपने-अपने गुण, धर्म, स्वभाव से अस्तित्व है । उनमें अपनी-अपनी स्थिति रूप से परिवर्तन होते रहने पर भी नित्यता है । वे न तो सर्वथा नित्य ही हैं और न सर्वथा अनित्य ही । इसी प्रकार उनमें वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि अनेक गुण हैं । पदार्थों की यह स्थिति है । इसी पृष्ठभूमि के आधार पर जैन दर्शन ने अपना दृष्टिकोण एवं चिन्तन-मनन के लिये स्याद्वाद का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है । स्याद्वाद की परिभाषा विचार करने की क्षमता ही मनुष्य को समग्र प्राणधारियों में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त कराती है । मनुष्य स्वयं सोचता है और स्वतंत्रता पूर्वक सोचता है। परिणामतः विचारों की विभिन्न जन्म लेती हैं । एक ही वस्तु के बारे में विभिन्न व्यक्ति अपने-अपने दृष्टिकोणों से सोचना प्रारम्भ करते हैं। यहां तक तो विचारों का क्रम ठीक रूप में चलता है, किन्तु उसके आगे यह होता है कि विचार करने वाले विचारणीय वस्तु को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखकर उसके समग्र स्वरूप को समझने की ओर उन्मुख नहीं होते, जिसके फलस्वरूप एकान्तिक दृष्टिकोण एवं हठवादिता का वातावरण बनने लगता है और जो विचार सत्य ज्ञान की ओर बढ़ा सकते थे, वे ही पारस्परिक समन्वय के अभाव में विद्वेषपूर्ण संघर्ष के जटिल कारणों के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं । इस संघर्ष का परिहार स्याद्वाद सिद्धान्त द्वारा संभव है । हम अपने जीवन-व्यवहार को ही लें। वह विधि - निषेध - संस्पर्शी पार्श्वयुगल के बीच से गुजरता है । प्रत्येक रूप और क्रिया-कलाप में इनका प्रयोग दूध में पानी के समान मिला हुआ देखते हैं । इनके बिना हम अपने व्यवहार का निर्वाह एक क्षण के लिये भी नहीं कर सकते । जैसे Jain Education International आयार्यप्रवर अभि श्री आनन्द द. आयपत्र अन्य 9 श्री आनन्द For Private & Personal Use Only அழ 30 आमद अन् www.jainelibrary.orgPage Navigation
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