Book Title: Syadwad Siddhant Ek Anushilan Author(s): Devkumar Jain Shastri Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 6
________________ स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन ३११ ९ हां, यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि एक ही अपेक्षा से विधि-रूप और निषेध-रूप कथन नहीं किया जा सकता है। इस स्थिति को स्याद्वाद में निश्चित शब्दावली द्वारा व्यक्त किया जाता है और निम्नलिखित सप्तभंगों द्वारा कथन-परम्परा चलती है-- १. स्यात्-अस्ति कथंचित् है। २. स्यान्नास्ति कथंचित् नहीं है। ३. स्यादस्ति-नास्ति कथंचित् है और नहीं है। ४. स्यादवक्तव्य कथंचित् कहा नहीं जा सकता है। ५. स्यादस्ति-अवक्तव्य कथंचित् है, तो भी कहा नहीं जा सकता है । ६. स्यान्नास्ति-अवक्तव्य कथंचित् नहीं है तो भी कहा नहीं जा सकता है। ७. स्यादस्ति-नास्ति-अवक्तव्य कथंचित् है और नहीं है तो भी कहा नहीं जा सकता है। उक्त भंगों के माध्यम से मुख्य और उपचार कथनशैली द्वारा वस्तु-स्वरूप समझने में सफलता मिलती है और भ्रांत-धारणाओं का उन्मूलन होकर शाश्वत सत्य समझ में आ जाता है। वस्तु के अनन्त धर्म ज्ञान का विषय होने से ज्ञेय हैं। इसी तरह शब्द का वाच्य होने से अभिधेय भी हैं। हम जिन-जिन शब्दों द्वारा वस्तु को संबोधित करते हैं, वस्तु में उन-उन शब्दों द्वारा कही जाने वाली शक्तियां विद्यमान हैं। यदि ऐसा न होता तो वे वस्तुयें उन-उन शब्दों के द्वारा संबोधित नहीं होतीं और न उन शब्दों को सुनकर विवक्षित धर्मों का बोध ही होता। स्याद्वाद द्वारा उन धर्मों का अपेक्षाओं को लक्ष्य में रखते हुए कथन किया जाता है, लेकिन वस्तू के अनुजीवी धर्मों में इसका प्रयोग नहीं होता है, जैसे-आत्मा चेतन है, और पुद्गल रूप, रस, गंध एवं वर्ण वाला है । क्योंकि आत्मभूत लक्षणात्मक धर्म आपेक्षिक नहीं होते हैं। यदि उन्हें भी किसी प्रकार आपेक्षिक बनाया जा सके तो फिर उनमें भी स्याद्वाद प्रक्रिया लागू होगी। सप्तभंगों की सिद्धि वस्तु में विद्यमान अनन्त धर्म त्रिकाल-भूत, वर्तमान और भविष्यवर्ती हैं । अतः उनके कथन की प्रक्रिया भी ऐसी होनी चाहिये, जिससे उनका कथन होते रहने के साथ-साथ कथितेतर धर्मों के अस्तित्व आदि का बोध होता रहे एवं उनका अपलाप या अवगणना न हो जाये । इस सार्वकालिक स्थिति का दिग्दर्शन स्याद्वाद द्वारा कराया जाता है और उस स्थिति में स्यादस्ति, स्यान्नास्ति आदि सप्तभंग स्वयमेव सिद्ध हो जाते हैं। इन सप्त भंगों में स्यात्-अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य ये तीन असंयोगी भंग हैं । स्यादस्तिनास्ति, स्यादस्ति-अवक्तव्य, स्यान्नास्ति-अवक्तव्य द्विसंयोगी और स्यादस्ति-नास्ति-अवक्तव्य यह In विसंयोगी भंग है। यद्यपि अस्ति और नास्ति रूप स्थिति का अनुभव तो हमें प्रतिसमय होता है और हमारा बर्ताव, व्यवहार दोनों में से किसी एक की मुख्यता और दूसरे की गौणता के आधार पर चलता रहता है, किन्तु उस स्थिति में भी वस्तु अनन्त धर्मों से विहीन नहीं है। अतः इनकी सत्ता अवक्तव्य शब्द द्वारा प्रगट की जाती है। शेष भंग क्रमिक और युगपत् मुख्यता और गौणता देने से बन जाते हैं। यहाँ प्रश्न होता है कि जब एक की मुख्यता और दूसरे की गौणता के आधार पर वागव्यवहार होता है तो उक्त सप्तभंगों के अस्ति, नास्ति इन दो भंगों में से कोई एक भंग रख लिया जाये और दूसरा न माना जाये । यदि इससे काम चल सकता है तो दूसरे भंगों की संख्या भी नहीं AAKIRAILERaransaAAAAAAKJAINLADABANKaamanariesreadiadyaAMDAINIKKAniraanwar بهره به همراه في عمرهم आचार्यप्रवभिः आचार्यप्रवभिनय श्राआनन्दग्रन्थश्राआनन्दअन्य MAmrivim Jain Education International oranmomwww.marimmmm mmmirrrriinners For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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