Book Title: Swetambar Sampraday ke Gaccho ka Samanya Parichay Author(s): Shivprasad Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 6
________________ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के गच्छों का सामान्य परिचय भावदेवसूरि विजयदेवसरि वीरसरि जिनदेवसूरि यशोभद्रसरि भावदेवसूरि [वि.सं.1412/ई.सन 1356 में पार्श्वनाथचरित के रचनाकार कालकाचार्यकथा, यतिदिनचर्या, अलंकारसार, भक्तामरटीका आदि के कर्ता भावदेवसरि को ब्राउन ने पार्श्वनाथचरित के कर्ता उपरोक्त भावदेवसरि से अभिन्न माना है। इस गच्छ से सम्बद्ध अनेक प्रतिमालेख मिले हैं जो वि.सं. 1196 से वि.सं. 1664 तक के हैं। निष्कर्ष के स्प में कहा जा सकता है कि वि.सं. की 12वीं शती में यह गच्छ अस्तित्व में आया और वि.सं. की 17वीं शती के अन्तिमचरण तक विद्यमान रहा। इसके पश्चात इस गच्छ का कोई उल्लेख न मिलने से यह प्रतीत हो इस गच्छ के अनुयायी अन्य किन्हीं गच्छों में सम्मिलित हो गये होंगे। खरतरगच्छ चन्द्रकुल के आचार्य वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि ने चौलुक्य नरेश दुर्लभराज की राजसभा में शास्त्रार्थ में चैत्यवासियों को परास्त किया, जिससे प्रसन्न होकर राजा द्वारा उन्हें 'खरतर का विरुद्ध प्राप्त हुआ। इस घटना से गुर्जरभूमि में सुविहितमार्गीय श्रमणों का विहार प्रारम्भ हो गया। जिनेश्वरसरि की शिष्य-सन्तति खरतरगच्छीय कहलायी। इस गच्छ में अनेक प्रभावशाली और प्रभावक आचार्य हुए और आज भी हैं। इस गच्छ के आचार्यों ने साहित्य की प्रत्येक विधाओं को अपनी लेखनी द्वारा समृद्ध किया, साथ ही जिनालयों के निर्माण, प्राचीन जिनालयों के पुनर्निर्माण एवं जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा में भी सक्रियरूप से भाग लिया।21 युगप्रधानाचार्यगुविली22 में इस गच्छ के 11वीं शती से 14वीं शती के अन्त तक के आचार्यों का जीवनचरित्र दिया गया है जो न केवल इस गच्छ के अपितु भारतवर्ष के तत्कालीन राजनैतिक इतिहास की दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त इस गच्छ से सम्बद्ध अनेक विज्ञप्तिपत्र, पट्टावलियाँ, गुर्वावलियाँ, ऐतिहासिक रास, ऐतिहासिक गीत आदि मिलते हैं जो इसके इतिहास के अध्ययन के लिये अत्यन्त उपयोगी हैं। अन्यान्य गच्छों की भाँति इस गच्छ की भी कई शाखायें अस्तित्व में आयीं. जो इस प्रकार हैं -- 1. मधुकरा शाखा -- आचार्य जिनवल्लभसूरि के समय वि.सं. 1167/ई.सन 1111 में यह शाखा अस्तित्व में आयी। 2. रुद्रपल्लीयशाखा -- वि.सं. 1204 में आचार्य जिनेश्वरसूरि से यह शाखा अस्तित्त्व में आयी। इस शाखा में अनेक विद्वान आचार्य हुए। श्री अगरचन्द नाहटा के अनुसार वि.सं. की 17वीं शती तक इस शाखा का अस्तित्व रहा। 3. लघुखरतरशाखा -- वि.सं. 1331/ई.सन् 1275 में आचार्य जिनसिंहसरि से इस शाखा का उदय 119 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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