Book Title: Swanubhuti se Rasanubhuti ki aur
Author(s): Mohanchand
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 2
________________ जैनधर्म के प्रभावक आचार्यों ने मानव प्रकृति की इस प्रवृति को भली-भांति से समझा है। परिणामस्वरूप जैनधर्म का अधिकांश साहित्य काव्यसाधना से विशेष उत्प्रेरित रहा है। जिनसेन एवं गुणभद्रकृत आदिपुराण एवं उत्तरपुराण उत्कृष्ट शैली के महाकाव्य हैं तथा अनेक परवर्ती काव्यों के उपजीव्य भी हैं। इसी परम्परा में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज की काव्य साधना की पृष्ठभूमि भी अत्यन्त वैभवशाली रही है। बाल्यकाल से ही नाट्य-अभिमंचन तथा संगीत गायन के प्रति उनका रुझान रहा था। एक दायित्वपूर्ण दिगम्बरी साधना के आचार्य पद का निर्वाह करते हुए भी उन्होंने 'भरतेशवैभव', 'अपराजितेश्वरशतक' आदि उत्कृष्ट काव्य कृतियों पर व्याख्यापरक भाष्य लिखे । उपदेश सार संग्रह के अनेक सन्दर्भ ऐसे हैं जहां पर महाराज श्री का वाग्वैभव सुन्दर 'काव्याभिव्यक्ति के रूप में स्फुट हुआ है। स्वानुभूति से रसानुभूति की ओर जाने का अनुभव महाराज श्री ने किया है और आत्मानुभूति की प्रक्रिया को समझाते हुए कहा है-"आत्मलोचन वह है जो परलोचन की वृत्ति को निर्मूल कर दे । आत्मनिरीक्षण वह है जो परदोष दर्शन की दृष्टि को मिटा दे । दूसरों की आलोचना वही कर सकता है जिसमें आत्म-विस्मृति का भाव प्रबल होता है।" मौलिक सर्जन के लिए आत्मानुभूति की अनिवार्यता को रेखाङ्कित करते हुए महाराज श्री ने कहा है-"आज आलोचकों की भरमार है, मौलिक स्रष्टा कम और बहुत कम । कारण सैद्धान्तिकता अधिक है, अनुभूति कम । सिद्धान्तवादिता से आलोचना प्रतिफलित होती है और अनभूति से मौलिकता । सिद्धान्त से मौलिकता नहीं आती, मौलिकता के आधार पर सिद्धान्त स्थिर होते हैं।" आचार्य श्री ने जैनधर्म के तत्त्वचिन्तन को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने के उद्देश्य से काव्य क्षेत्र की विभिन्न प्रतीक योजनाओं, बिम्ब-विधानों, अप्रस्तुत विधानों का आश्रय लेते हुए मौलिक काव्यसर्जन को भी आधुनिक आयाम दिए हैं। प्राचीन काल से ही नीतिकारों एवं काव्य रसिकों ने 'अन्योक्ति' विधा की काव्य रचनाओं से जीवन के यथार्थ सत्यों का उद्घाटन किया है । आचार्य श्री देशभूषण महाराज के प्रकीर्ण उपदेश सन्दर्भो में 'अन्योक्ति' का पुट अत्यन्त प्रबल है । इस विधा के अन्तर्गत लोक व्यवहार या प्रकृति आदि की विभिन्न वस्तुओं को लक्ष्य करके सार्वभौमिक सत्यों का उद्घाटन किया जाता है। ऐसी काव्याभिव्यक्तियां इतनी अभिव्यंजना-प्रधान होती हैं कि सामान्य व्यक्ति भी सहज भाव से तत्त्व को ग्रहण कर लेता है। सामान्य उपदेश की अपेक्षा ऐसी अन्योक्तिपरक अभिव्यक्तियां मनुष्य के हृदय पर अपना अमिट प्रभाव छोड़ने में अधिक समर्थ होती हैं। आधुनिक हिन्दी साहित्य में 'क्षणिका' शैली द्वारा काव्य लेखन की प्रवृति अत्यन्त लोकप्रिय होती जा रही है। इसी शैली के माध्यम से आचार्य श्री की काव्यक्षणिकाओं ने भी मानव जीवन के कटु सत्यों को उद्घाटित किया है। इन पंक्तियों के लेखक ने उपदेश सार संग्रह(प्रथम भाग)से अनेक काव्यमय क्षणिकाओं और अन्योक्तियों को विविध शीर्षकों के माध्यम से संकलित रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। प्रकीर्ण रूप से यत्र तत्र बिखरे हुए उपदेशों को भाव साम्य की दृष्टि से एक शीर्षक के अन्तर्गत लाने की चेष्टा की गई है। किंचित् संकलनात्मक एवं प्रस्तुतीकरण सम्बन्धी परिवर्तनों एवं संशोधनों के अतिरिक्त समग्र भावपरकता एवं शब्द योजना की दृष्टि से महाराज श्री की मौलिकता को बनाए रखा गया है । 'ओ बन्दी देख !' सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण क्षणिका है जिसमें मानव मन द्वारा इन्द्रियों की दासता ग्रहण करने की दुर्बलताओं का हृदयाकर्षक वर्णन मिलता है । इन्द्रियां अपने बाह्य विषयों से पराभूत हो जाने के कारण आत्मोन्मुखी वृत्ति से पराङ मुख हो गई हैं। इसी मानवीय दुर्बलता को विदेशी शासन की गुलामी के रूपक में बांधा गया है। विदेशी सत्ता का तन और मन दोनों पर अधिकार हो गया है। इस परतन्त्रता को जंजीरों में जकड़ा हुआ मानव भोगविलास के पुष्पसौन्दर्य से मोहित है और कैद कर लिया गया है। रूप-रसगन्ध के कटीले तारों से उसकी स्वतन्त्रता अवरुद्ध हो गई है। स्वतन्त्रता, मुक्ति, आलोक और समता से वंचित मानव मन अपने विषय भोगों की लोलुपता के कारण दासता की जंजीरों में जकड़ता ही जा रहा है। "विषय भोगों' से लिप्त मनुष्य मुक्ति की ओर जाना भी चाहे तो भी वह वहां तक पहुंचने में कितना असमर्थ है-इस भाव की सौन्दर्याभिव्यक्ति 'विवशता' नामक क्षणिका में की गई है। नयनाभिराम सुन्दरियों से आत्म-प्रकाश का मार्ग अवरुद्ध हो गया है। धनवैभव की शान शौकत ने तत्त्व दृष्टि को ढक दिया है। 'संघे शक्ति कलौ युगें' में उस भेड़चाल की प्रवृति का पर्दाफाश किया गया है जब भौतिकवादी सुखवाद के शोरगुल में अध्यात्म चेतना कुंठित हो जाती है और मनुष्य जानता हुआ भी सांसारिक सुखों में ही आत्म कल्याण मानता है। संघ चेतना का युगीन स्वर उसे इस ओर जाने के लिए विवश किए हुए है। 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' नामक कविता में आम्रवृक्ष के प्रतीक द्वारा फलप्राप्ति के समाज शास्त्र को समझाया गया है। इस प्रकार प्रस्तुत संग्रह में अनेकानेक अन्योक्तियां प्रकृति की किसी वस्तु विशेष की विशेषता द्वारा जीवन के कटु सत्यों का आभास कराती हुई हमें तत्त्वचिन्तन की गहराइयों में ले जाती हैं । आशा है काव्य रसिक एवं श्रद्धालु लोग महाराज श्री की इन क्षणिकाओं से आनन्दित होने के साथ-साथ ज्ञानान्वित भी होंगे। ८२ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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