Book Title: Swanubhuti se Rasanubhuti ki aur Author(s): Mohanchand Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 7
________________ ३५ श्रद्धा का इतिहास ३१. लोकालोक इस मिट्टी के बर्तन में घी तूने उडेला, बाती सजाई ! पर चिन्गारी तेरे पास कहां है ? दियासलाई मत जला, लकड़ियां मत घिस, वह मूरज रहा बादलों की ओट में उसकी एक किरण ले आ याद रख ! यहां की चिन्गारी क्षितिज के उस पार उजाला नहीं बनेगी ! आसुओं की स्याही से लिखा गया है-श्रद्धा का इतिहास ! भक्ति के उद्रेक से पिघल जाता है भक्त का कोमल हृदय ! देख सकता नहीं भगवान् अपने भक्त की इस दशा को परम कारुणिक अपने भक्त के खातिर स्वयं ही पिघल जाता है। ३२. दिन और रात मनुष्य ने कृत्रिम प्रकाश कर रात को दिन बनाना चाहा पर नींद से अधमुंदी आखों ने यह मानने से इन्कार कर दिया कि अभी दिन है ! दिन अपने साथ प्रकाश लाता है इसलिए वह स्पष्ट है ! रात इसलिए अन्धेरे में रहती है कि वह सबको एक समान बनाना चाहती है !! ३६. अर्थ-गौरव शब्द उतने ही हों जितना अर्थ ! जल उतना ही ओ जितना मीठा ! वे शब्द किस काम के जो अर्थ-गौरव को निगल जाए ! वह जल किस काम का जो मिठास को ही हर ले ! ३३. नीला आकाश ओ द्रष्टा! इस रंगीन चश्मे को उतार फेंक ! किसने कहा-आकाश नीला है ? जो नीला है वह आकाश नहीं धूप और छांह-नीले और सफेद की रेखा इस सूरज ने खींच रखी है नटराज ! ऊपर को देख आकाश नीला नहीं है, नीचे गड्ढा है ! ३७. व्यक्ति और समूह ३४. ओ विदेह इस रेशमी कीड़े ने अपने हाथों यद जाल कब बुना था ? यह अभिमन्यु इस चक्रव्यूह मैं कब घुसा था? कहां है इस जाल का आदि बिन्दु मध्य बिन्दु और अन्त बिन्दु ? अन्दर से अभिमन्यु चिल्ला रहा है ! मैं उस मुक्ति बिन्दु में आना चाहता हूँ ! जहां जालों औ व्यूहों की परम्परा ही नहीं है। व्यक्ति में निर्माण शक्ति है किन्तु मूल्य है स्वतंत्र ! व्यक्ति-व्यक्ति के बीच विराम है शक्ति संचय से हीन जैसे-१, २, ३ (एक, दो, तीन) समूह में निर्माण शक्ति नहीं स्वतंत्र मूल्य से भी वंचित ! उसमें एक दूसरे के बीच विराम नहीं ! शक्ति संचय से प्रेरित जैसे-१२ ३ (एक सौ तेइस) सृजन-संकल्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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