Book Title: Swanubhuti se Rasanubhuti ki aur Author(s): Mohanchand Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 6
________________ २३. आरोप की भाषा कोलाहल होता है, हम जग जाते हैं। शान्ति होती है, हम सो जाते हैं। यह हमारी आरोप की भाषा है सचाई कुछ और ही है हम जगते हैं तभी कोलाहल होता है। हम सोते हैं सभी शान्ति रहती है शान्ति और कोलाहल हमारी ही परिचियां हैं ! २४. उपा और सन्ध्या नया आलोक लिए उषा आती है। संसार जगाने को ! सन्ध्या आती है खोलने को हमारे जीवन की एक गांठ ! एक दिन वह भी आता है जब जीवन की सभी गाठें हो जाती हैं निश्वशेष २५. विधि का विधान कण कण तुम्हारा मधुर है-ईशु ! देखो ! विधि का यह कैसा विधान है ! ये सुरभिहीन तुम्हारे ही फूल क्या तुम्हारी मधुरिमा के अनुरूप हैं ?. २६. रंग परिवर्तन चाँदनी की सफेदी में रंगे खजूर के तनों को विलीन होते देखा ! और यह भी देखा ! कि अपने ही रंग के निर्विकार पते शून्य में निराधार बड़े थे २७. उतार चढ़ाव मैं सागर की गहराई को विस्मय से देख रहा था किन्तु सागर मेरे मन की गहराई में हुवा जा रहा था मैं हंस रहा था उर्मियों के उतार चढ़ाव पर वे पहले ही मेरी कल्पनाओं के उतार चढ़ाव पर हंस रही थीं । ८६ Jain Education International २८. मुक्ति रस्सी ! मुझे मुक्ति दो ! अब तुम लम्बी हो चली हो ! एक साथ ही बहुतों को बांधना चाहती हो क्या ? वह सघनता अब मिट चुकी है ! तब विश्वास था अब सन्देह ! तब बन्धन था अब मुक्ति ! रस्सी ! तुम लम्बी हो चली हो अब मुझे मुक्ति दो ! मुक्ति दो !! २६. अमृत और विष अमृत पी मनुष्य क्लान्त हो गया है। आज उसे विष की बूंदें पीनी होंगी ! अन्यथा अमृत स्वयं विष बन जाएगा ! अब विष पान कर ! चिरकाल से तू अमृत पीने का आदी है। तेरा उद्गार भी विकृत हो चला है ! लंघन के क्रम का उल्लंघन मत कर ! अन्यथा अमृत स्वयं विष बन जाएगा ! विष को अमृत किया इसलिए नीलकंठ शंकर बना है ! जिसने विष को पचा लिया वह अमर हो गया ! ३०. यह वही सुन्दरी है यह वही सुन्दरी है जिसका यौवन वरदान बन गया था ! जिसका हर चरण हजारों आंखों का नूपुर पह्न चुका था ! जिसके सौन्दर्य की गहराई में हजारों स्नेह बिन्दु समा चुकी थीं यह वही सुन्दरी है - जिसके बुढ़ापे ने हजारों दृष्टियों में उपहास भर दिया है जिसके होठों की परियों में समा चुकी है घृणा की गन्ध ! जिसके सुरियों में सिमटे हुए मुखचन्द्र ने जगा दिए करुणा सागर में अनेक ज्वार भाटे अरे! यह वही सुन्दरी है ! जिसका बुढ़ापा अभिशाप हो रहा है ! For Private & Personal Use Only आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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