Book Title: Swadhyaya ka Saral Swadhyaya
Author(s): Lakshmichandra
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf

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Page 2
________________ ___ चूंकि ज्ञान से बढ़कर संसार में कुछ भी नहीं है, अतएव वह सुख का मूलभूत कारण है। यदि लोक में कछ परम अमत है तो वह ज्ञान है. जो जन्म और जरा तथा मरण को मिटाने में समर्थ है। बडी या भैंस इस कहावत को इसमें निहित वास्तविक सत्य आशय को भला कौन नहीं जानता? और मानवीय जगती उसके बल और धन से बहत बडी है, वह तो अतीत से आज तक सर्य सत्य ही बना है। अन्धे आदमी के लिए सूरदास सदृश प्रज्ञा चक्षु शब्द का प्रयोग भी आपने सुना होगा और प्रयोग किया भी होगा तथा उसकी उपयोगिता पूछने पर किसी विद्वान ने आपको यह भी बताया होगा कि चर्म चक्षु की अपेक्षा प्रज्ञा चक्षु का महत्व उतना अधिक है कि जितना भी इस दिशा में शक्य और सम्भव है। मुख में नाक के ऊपर स्थित बाहर से दीखने वाली आँखें यदि नहीं भी हों तो कोई चिन्ता की बात नहीं है पर यदि अन्तर में स्थित भीतरी बुद्धि और विवेक की आँख जाती रहे तो समझो कि हमारे पास कुछ भी नहीं बचा। सम्भव है आपने किसी क्रोधित पिता को अपने पुत्र से यह भी कहते सुना हो कि क्या तुम्हारे हिये की भी फूट गई है। भगवान करे कि किसी की बाहर या भीतर की आँखें फूटें पर यदि होनहार या अमिट भाग्य की प्रेरणा से कदाचित ऐसा अवसर आ ही जावे तो बाहर की आँखें भले फूट जावें पर भीतर की आँखें नहीं फूटें अन्यथा अनेक सूरदास, होमर, मिल्टन विश्व को सत्साहित्य न दे पावेंगे। यों तो बातचीत के दौरान में सभी अपने लिये कच्चा और बच्चा नहीं बल्कि चच्चा और सच्चा ज्ञानी ही होने का दम भरते हैं और अपने ज्ञान एवं धर्म को एकदम शुद्ध परिमार्जित और परिष्कृत होने का दम्य या दावा भी करते हैं परन्तु मुझे तो इस दिशा में पार्श्वपुराण के प्रणेता भूधरदास जी का 'बोधिदुर्लभ' भावना विषयक दोहा ही अधिक उपयुक्त लगता है। कोई माने या न माने पर है सूर्य सत्य - धन कन कंचन राज-सुख, सबहि सुलभ कर जान। दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान॥ अर्थात् संसार में सब कुछ सहज सुलभ है पर वास्तविक आत्मिक ज्ञान नहीं और इसीलिए सुकरात को Know Thy selt अर्थात् अपने को पहिचानो कहना पड़ा तथा वैदिक महर्षियों को भी 'आत्मानं बिद्धि' अर्तात् स्वयं को आत्मा को जानो लिखना पड़ा। जिन्होंने आत्मिक ज्ञान, आत्मबोध, आत्मानुभूति, अन्तर की आँख अथवा विवेकमयी हिताहित की दृष्टि पा ली, वे ही मेरे लेखे सच्चे ज्ञानी हैं, जिनकी भीतर और बाहर की आँखें सतर्क सक्रिय और सजग होकर एक ओर ज्ञान के आलोक में सर्वस्व या स्व तत्व देखती हैं और दूसरी ओर लोक में 'नहास्ति किंचन' (लोक में मेरा कुछ भी नहीं) अर्थात् स्व तत्व आत्मा लेखती हैं। ऐसी एक से अधिक ईश्वरों या परमात्माओं को जन्म और जीवन देने वाली स्वाध्याय है। संक्षेप में एक वाक्य में, स्वाध्याय तो ज्ञान और ज्ञानी दोनों की ही जननी है और स्व पर भेद विज्ञान अथवा शरीर और आत्मा के रहस्य को समझाने वाली दीप-शिखा या दीपिका स्वाध्याय ही है। शिक्षा की आदि स्रोत - यह तो बच्चे से लगा कर बूढ़े तक सभी जानते हैं कि शिक्षा अपूर्ण मनुष्य को पूर्ण बनाती है और शिक्षा के ध्येय और उद्देश्य के सम्बन्ध में शिक्षा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से परामर्श लें तो वे कहेंगे कि शिक्षा का ध्येय चरित्र निर्माण है। और शिक्षा का उद्देश्य तो सदाचार की प्राप्ति है। तथा यही बात हम स्पेन्सर से पूंछे तो वे हर्वाट से भी आगे जाकर कहेंगे कि शिक्षा का उद्देश्य तो सर्वतोमुखी तैयारी है। पर ये सभी बातें तो आज के युग की हैं जब हम अतीत की अपेक्षा आज करोड़ों किलोमीटर दूर आ गये हैं पर जब हम पहले मील के पहले फल्ग के पहले कदम पर रहे होंगे (१४४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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