Book Title: Swadhyaya ka Saral Swadhyaya Author(s): Lakshmichandra Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 1
________________ 865 48686866664596MINMAMAAR स्वाध्याय का सरल स्वाध्याय • श्री लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज' उपक्रम • स्वाध्याय का महत्व पढ़े-लिखे और बिना पढ़े-लिखे, सभी व्यक्तियों के लिये समान रूप से है फिर भी श्रोता की अपेक्षा वक्ता का और प्रश्न पूछने वाले की अपेक्षा उत्तर देने वाले का महत्व उतना अधिक है कि जितना भी शक्य और सम्भव है। यदि श्रोता न हो तो वक्ता किस के लिए प्रवचन करें? और वक्ता नहीं हो तो श्रोता किससे-किसके प्रवचन सुने? स्वाध्याय के आधार-भूत वक्ता और श्रोता का सम्बन्ध तो रोटी-दाल जैसा है पर कभी-कभी परिस्थिति विशेष में वक्ता श्रोता और श्रोता वक्ता भी बन सकता है। अनुबन्ध इतना है कि वक्ता और श्रोता दोनों को विषयविद और वक्तृत्व कलाविद होना चाहिए। यह परम प्रसन्नता की बात है कि जैन ग्रन्थकारों ने वक्ता और श्रोता के सद्गणों और दुर्गणों की ओर भी संकेत किया है पर यदि यह कहा या लिखा जावे कि आज के समाज में अच्छे वक्ता और श्रोता का अभाव सा है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। धार्मिक प्रवचन तो वैसे ही हाशिये पर आ गए हैं जैसे सत्साहित्य आ गया या और राजनीति साहित्य सदश धर्म-क्षेत्र में छा गई है। प्रवचन पर वचन हो गए। हमें एक श्रेष्ठ वक्ता और श्रोता बनने के लिए न केवल स्वाध्याय का सरल स्वाध्याय करना होगा बल्कि स्वाध्याय के विषय को भी बखूबी समझना होगा और पठित विषय का दैनिक जीवन में प्रयोग करके जीवन के धरातल को उन्नत और उज्ज्वल भी बनाना होगा। वक्ता और श्रोता बनने के लिए उत्साह-जिज्ञासा, धैर्य-सत्संग, बुद्धि-युक्ति तो चाहिए ही साथ ही श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र, देव-शास्त्र-गुरु की पहिचान की शक्ति और उनमें अनुरक्ति तथा उन जैसी प्रवृत्ति एवं संसार-शरीर-भोगों से विरक्ति भी चाहिए। महज अन्तरात्मा की अनुभूतियों की, अपनी सुनिश्चित भाषा शैली भाव-भंगिमों में बोलने से काम नहीं चलेगा बल्किन जन साधारण की समझ में आने लायक विषय-चयन, भाषा-शैली, उचित उदाहरण तर्क-विज्ञान का भी सहारा लेना होगा। बात तो संयुक्तिक सारगर्मित होगी ही पर उसे सर्वथा सत्य या परम सत्य मनवाने का पूर्वाग्रह त्यांगना होगा। यदि हम धार्मिक स्वाध्याय के सन्दर्भ में कुछ लौकिक प्रसंग भी दें और अन्य धार्मिक प्रकरणों में समानान्तर सूर्य सत्य सिद्धान्तों को लेकर तुलनात्मक अध्ययन-अनुभव अभ्यास करें तो वक्ता और श्रोता का ज्ञान सुविकसित होगा तथा वक्ता का श्रोताओं पर आकर्षक प्रभाव पड़ेगा यानी स्वाध्याय सफल होगा। स्वाध्याय, उस सत्संग का मूलाधार है जिसके कारण रत्नाकर सदृश ठह आदि कवि महर्षि वाल्मीकि बन सके थे और विद्युच्चोर-अजन चोर भी निम्रन्थ होकर लोक में प्रतिष्ठा पा सके थे। ज्ञान-ज्ञानी जननी - जिस ज्ञान के बिना मुक्ति श्री नहीं मिलती और जिस ज्ञान की सभी धर्मों के आचार्यों ने सराहना की उसी ज्ञान के विषय में 'छहढाला' के सुकवि पंडित दौलतराम जी ने प्रस्तुत पद्य लिखकर गागर में सागर ही भर दिया है - ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारण। इह परमामृत जन्म जरामृत रोग निवारण॥ (१४३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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