Book Title: Swadhyaya ka Saral Swadhyaya Author(s): Lakshmichandra Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 5
________________ विचलित नहीं होना बतलाया वहाँ श्रोता का एक गुण ‘सार सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय' भी कहा। श्रोता पूर्वापर विचारक होने के साथ परिस्थिति विशेष में निस्संयोजन स्वभावी हो और अपने अन्तःकरण में पूर्वाग्रह वश कोई भूल भ्रम हो तो भी निस्संकोच स्वीकार कर सुधार ले। आचार्य प्रवर उमास्वामी ने अपने अमरग्रन्थ मोक्ष शास्त्र अपर नाम तत्वार्थ सूत्र में नवमें अध्याय में निर्जरा तत्व का वर्णन करते हुये दो प्रकार के तप बतलाये हैं :- (1) बाह्यतप (2) आभ्यन्तर तप। दोनों ही प्रकार के तप छह छह प्रकार के बतलाये हैं। (1) बाह्यतप से आशय उन तपों का है जो शरीर सम्बन्धी हों और बाहर से दिखें। ये अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रस-परित्याग, विविक्त शय्यासन और कायक्लेश हैं। (2) आभ्यन्तर तप से अभिप्राय उनतपों से है,जो आत्मा के समीप के सम्बन्धी गुण है और जो बाहर दिखाई नहीं देते हैं। ये प्रायिश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान है। तपों के वर्गीकरण को दृष्टि-पथ में रखते हुए स्वाध्याय को आभ्यान्तर तप कहा. जा सकता है। जैसे अग्नि, घास के ढेर को क्षण भर में जला कर राख कर देती है वैसे ही तप भी सभी कर्मों को जला के लिए नष्ट कर देता है। भगवती आराधना में आचार्य शिवकोटिने यह लिखा पर तप क्या है? प्रस्तुत प्रश्न का संक्षिप्त उत्तर यह है कि इच्छा का निरोध करना तप है। और ऐसा तप उत्तम संहनन धारक ही कर पाते हैं, विशेषतया ध्यान तप वे भी अधिक तप अन्तर्मुहूर्त तक ही कर पाते हैं। स्वाध्याय की शक्ति का रहस्य - स्वाध्याय की शक्ति का रहस्य अपार है। स्वाध्याय का रहस्य इतना महत्वमय है कि वह शैतान, हैवान को बखूबी इन्सान ही नहीं बल्कि भगवान भी बनाने में समर्थ है परन्तु स्वाध्याय के निम्न लिखित सूत्रों को दृष्टि-पथ में रखना अनिवार्य है - (1) जियात् अपने को पहिचान, जिओ और जीने दो की भावना लिये हो। (2) स्वाध्याय एक ओर धार्मिक हो और दूसरी ओर मनोवैज्ञानिक तथा आदर्शवादी। (3) स्वाध्याय-सुख-शान्ति लाने, आह और कराह मिटाने, परन्तु ज्ञान के दम्य, विज्ञानपन, प्रदर्शन के लिये नहीं हो। (4) स्वाध्याय सिखाती है कि जो जानता है कि वह जानता है, सचमुच ज्ञानी है। (5) स्वाध्याय सिखाती है कि जो जानता है पर नहीं जानता है कि जानता है, सीधा है। (6) स्वाध्याय जतलाती है कि जो नहीं जानता कि वह नहीं जानता है, शून्य है। (7) स्वाध्याय सिखलाती है कि जो नहीं जानता पर जानता कि जानता है, मूर्ख है। उत्तराध्ययन में आचार्य रामसेन ने स्वाध्याय और ध्यान के विषय में लिखा - स्वाध्याद् ध्यानम ध्यमास्तां ध्यानात् स्वाययायमामनेत। ध्यान स्वाध्याय सम्पत्या परमात्मा प्रकाशते॥ अर्थात् स्वाध्याय के पश्चात् ध्यान और ध्यान के पश्चात स्वाध्याय, इस प्रकार ध्यान और स्वाध्याय की पुनरावृत्ति से परमात्म स्वरूप उपलब्ध होता है। 26 शास्त्री कॉलोनी जावरा (मध्यप्रदेश) (147) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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