Book Title: Suryapragnptisutram
Author(s): Malaygiri,
Publisher: Agamoday Samiti
View full book text
________________
बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासेइ एवं पन्नवेइ एवं परूवेइ एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे आइगरे जाव सबन्नू सबदरिसी आगासगएणं छत्तेणं जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे इह आगए इह समागए इह समोसढे | इहेव मिहिलाए नयरीए बहिआ माणिभद्दे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं ओगिव्हित्ता अरिहा जिणे केवली समणगणपरिवुडे | संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तं महाफलं खलु देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं नामगोयस्सवि सवणयाए किमंग पुण अभिगमणवंदणनमंसणपडिपुच्छणपज्जुवासणयाए ?, तं सेयं खलु एगस्सवि आरियस्स धम्मि यस सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अहस्स गहणयाए ?, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं | वंदामो नमसामो सक्कारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेमो, एयं णो इहभवे परभवे य हियाए सुहाए | खमाए निस्सेसार आणुगामियत्ताए भविस्सइ, तए णं मिहिलाए नयरीए वहवे उग्गा भोगा' इत्याद्योपपातिकग्रन्थोक्तं (सू.२७) | सर्वमवसेयं यावत्समस्ताऽपि राजप्रभृतिका पर्षत् पर्युपासीना तिष्ठति । 'धम्मो कहिओ'त्ति तस्याः पर्षदः पुरतो निःशेषजनभाषानुयायिन्या अर्द्धमागधभाषया धर्म्म उपदिष्टः, स चैवम्- 'अस्थि लोए अस्थि जीवा अस्थि अजीवा' इत्यादि, तथा - " जहे जीवा बज्झति मुश्चंती जह य संकिलिस्संति । जह दुक्खाणं अंतं करिंति केई अपडिबद्धा ॥ १ ॥ अट्टनिय - | ट्टियअचित्ता जह जीवा सागरं भवमुविंति । जह य परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धालयमुविंति ॥ २ ॥ 'तहा आइक्खइ'त्ति
.१ यथा जीवा बध्यन्ते मुच्यन्ते यथा च संक्लिश्यन्ते । यथा दुःखानामन्तं कुर्वन्ति केचिदप्रतिबद्धाः ॥ १ ॥ आर्त्तनियन्त्रितचित्ता यथा जीवाः सागरं भवं (दुःखसागरं ) उपयान्ति । यथा च परिहीणकर्माणः सिद्धाः सिद्धालयमुपयान्ति ॥ २ ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 606