Book Title: Sumanmuni ji ka Sarjanatmak Sahitya
Author(s): Indarraj Baidya
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 3
________________ सुमन साहित्य : एक अवलोकन भावों को यथातथ्य रूप में, यथाशक्य प्रतिपादन करने का प्रयास किया है, साथ ही आगम एवं आगमबाह्य ग्रंथों के संदर्भो से उसे पुष्ट करने तथा जिनेन्द्र भगवान एवं जिनवाणी के प्रति श्रीमद् के मन में रही आस्था, उनके आगमों/जैनधर्म/दर्शन के गहन अध्ययन, तदनुरूप बाह्यआभ्यंतर क्रियानुष्ठान की सूक्ष्म व्याख्या को प्रकट करने का प्रयत्न किया है।" द्वितीय खंड की भूमिका में वे स्पष्ट शब्दों में घोषित करते हैं कि “आत्मसिद्धि तो विशेषतः 'अस्थिजीओ तह निच्चा' गाथा के आधार पर ही आधारित है।" पं. रत्न श्री सुमन मुनि जी निर्भीक वक्ता के रूप में प्रतिष्ठित हैं। जहाँ भी और जब भी कोई दोष उन्हें सम्यक्त्व की अनुपालना में दृष्टिगत हुआ है, तो उन्होंने जिन शासन के व्यापक हितों का विचार करते हुए श्रावकों को सचेत करने की महनीय भूमिका निभाई है। श्रीमद् राजचंद्रजी कहते हैं: आत्मज्ञान त्याँ मुनिपगुं, ते साचा गुरु होय। बाकी कुलगुरु कल्पना, आत्मार्थी नहीं जोय।। - (आत्मसिद्धिशास्त्र, दो. ३४) आशय यह है कि सच्चे आत्मार्थी के लिए कुलगुरु का कोई महत्त्व नहीं। मध्यकालीन जातिवाद की संकीर्णता से आधुनिक समाज उबरा नहीं है। यह दुर्भाग्य की बात है कि कुछ वर्ग अब तक भेदनीति पर चलते रहे हैं, जो किसी भी स्थिति में उचित नहीं है, आगम-सम्मत तो है ही नहीं। उपर्युक्त दोहे की व्याख्या करते हुए प्रवचनकार मुनिश्री कहते हैं - "इस पद में श्रीमद् ने.....जातिवाद के दुराग्रह का निराकरण करते हुए आत्मज्ञान-लक्षण की प्रतिपादना से सच्चे गुरु को व्याख्यायित किया है। आत्मज्ञान शून्य मुनि को कुलगुरु मानने की परंपरा मात्र कल्पना है। अमुक-अमुक जाति-कुल वाले को साधु-संघ में दीक्षित नहीं किया जा सकता; अमुक को साधु-दीक्षा तो दी जा सकतीहै, किंतु आचार्य-उपाध्याय आदि वरिष्ठ पद नहीं दिये जा सकते। ये अमुक जाति-विशेष के लिए नियत है. आदि। और यह मान्यता तो १६वीं शताब्दी तक भी बड़े गौरव के साथ दोहराई जाती रही है, तथा इससे समुदायों में वर्गीकरण/पृथकता को भी बढ़ावा मिलता रहा है।" (शुक्ल प्रवचन, भाग दो, पृ.५६४) महाराज साहब आगे फ़रमाते हैं - "जिन-धर्म में जाति को कहाँ महत्त्व दिया है? उसने तो समग्र मनुष्यों की एक ही जाति स्वीकार की है: ‘मनुष्यजातिरेकैव' । श्रावक हरजसराय ने कहा है-जाति को काम नहीं, जिन मार्ग, संयम को प्रभु आदर दीनो ।" (वही, पृ.५६५) इस प्रकार श्रीमद् राजचन्द्रजी ने आत्मसिद्धिशास्त्र में मानवीय समानता और एकता का जो स्वर उभारा है, उसी की पुष्टि सामयिक संदर्भो के साथ श्री सुमन मुनिजी अपनी व्याख्या में करते हैं। केवल श्रमण विचारधारा में ही नहीं, संपूर्ण भारतीय वाङ्मय में मानवीय समानता का समुद्घोष हुआ है। संस्कृत-साहित्य में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का जो आदर्श मुखरित हुआ है, वही तमिल-साहित्य में 'यादुम ऊरे यावरुम केलिर' (सब लोक अपने, सब लोग अपने) के संदेश में देखा जा सकता है। सबको अपना माननेवाली भारतीय संस्कृति में न कोई बड़ा है, न कोई छोटा; फिर कुल और . जाति के नाम पर वर्गीकरण को कैसे उचित माना जा सकता है? 'शुक्ल प्रवचन' में भी जैन विचारों को जहाँ भी संदर्भ बना है, पर्याप्त विस्तार के साथ समझाया गया है। आत्मसिद्धि शास्त्र के १८वें दोहे में मान-विषयक बात कही है। उसका बहुत ही सुंदर विश्लेषण पंडित रत्न सुमन मुनिजी प्रस्तुत करते हैं। आगम-वाणी में, मानसंबंधी जो बारह भेद गिनाये गये हैं, उन पर प्रकाश डाल कर पाठकों को विनय की सीख दी गई है। ये भेद हैं: मान, मद, दर्प, स्तम्भ, गर्व, अत्युतक्रोश पर-परिवाद, उत्कर्ष, अपकर्ष, उन्नत, उन्नाम और दुर्नाम मनुष्य के पतन का मुख्य कारण अहंकार ही है, इसे त्याग कर ही आत्मा को उबारा जा सकता है। जैन संतों ने और विश्व के सभी विद्वानों ने अहंकार को त्याज्य माना है। तमिल संत तिरुवल्लुवर कहते हैं: | अध्यात्म-मनीषी श्री सुमनमुनि जी का सर्जनात्मक साहित्य २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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