Book Title: Sumanmuni ji ka Sarjanatmak Sahitya Author(s): Indarraj Baidya Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf View full book textPage 2
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि देखने की उसके मन में उत्सुकता का उत्पन्न होना सहज ही श्रीमद्राजचंद्र के ‘आत्मसिद्धिशास्त्र' को आधार बनाकर है।" (तत्त्व चिंतामणि-१ की भूमिका) स्वाध्यायशील पाठक जो व्याख्यान दिये, उनका सारगर्भित आख्यान है 'शुक्ल की इसी जिज्ञासा को शांत करने का सुष्ठ सुनियोजित प्रवचन'। पंजाब की जैन नगरी मलेर कोटला में अपने प्रयास हुआ है तत्त्व चिंतामणि में, जिसके पहले भाग में गुरुवर श्रद्धेय पं. रत्न श्री महेंद्रकुमारजी महाराज के पच्चीस बोलों की, दूसरे भाग में नव तत्त्वों की और तीसरे चरणों में बैठकर सन् १६७४ के चातुर्मास में मंगलवाणी भाग में छब्बीस द्वारों की सम्यक् विवेचना प्रस्तुत की गई के माध्यम से जिस 'आत्मसिद्धि शास्त्र' का पारायण श्री है। दरअसल, अपने पितामह गुरुवर श्रद्धेय पं. रल सुमनमुनि जी महाराज ने आरंभ किया था, वही वर्षों बाद शुक्लचंद्रजी महाराज के ग्रंथ 'जैन धर्म मुख्य तत्त्व चिंतामणि' सन् १६८८ ई. में बोलारम (सिकंदराबाद) चातुर्मास में से प्रेरित होकर ही मुनिश्री ने जैन दर्शन-तत्त्वों का सरल विशिष्ट आध्यात्मिक व्याख्यानों के रूप में परिणत हुआ। भाषा-शैली में परिचय प्रस्तुत किया है। परिचय भी पर्याप्त श्रद्धा और भक्ति के जलद निरंतर बरसते रहें तो चिंतन विस्तृत है। केवल 'जीव' तत्त्व का विवेचन ही लगभग की भूमि को तो उर्वरा होना ही है। नैष्ठिक अध्ययन, तीस पृष्ठों में किया गया है। आत्मा की शरीराबद्ध स्थिति सम्यक् चिंतन और आत्मिक मंथन से ही ज्ञान का अमृत को भारतीय वाङ्मय में जीव माना गया है। यह कर्ता भी प्राप्त होता है। केवल आत्म चर्चा करने से ज्ञान नहीं है और कर्म फल का भोक्ता भी है। इसके समस्त भेदों मिलता। कविवर जायसी ने कितना सुंदर कहा है: - पर मुनिश्री ने आगम-प्रमाण देते हुए व्यापक विचार किया 'का भा जोग कथनी के कथे। है। अंत में, मोक्ष तत्त्व पर प्रकाश डाला है, जिसका जैन निकसै जीव न बिना दधि मथे।।" दर्शन में अपना वैशिष्ट्य है। निर्बन्ध स्थिति में आत्मा सिद्धत्व प्राप्त करती है। सर्व कर्म-विमुक्त आत्मा ही सिद्ध आध्यात्मिक परिश्रम करनेवाले ही आत्मज्ञान के पथ है. जिसका ज्ञान सदप्ररूपणा. द्रव्य क्षेत्र, स्पर्शन आदि पर निरतर बढ़ते रहते हैं। द्वारों से किया जाता है। (दे. तत्त्व. चिंतामणि-२, पृ.१६२- अस्तु; श्रीमद् राजचंद्र ने अपनी कृति 'आत्मसिद्धि १६४) सिद्धात्माओं के पंद्रह भेदों तीर्थ सिद्ध, अतीर्थ शास्त्र' के ४३वें दोहे में आत्मा-संबंधी जो तथ्य गिनाए हैं, सिद्ध, तीर्थंकर सिद्ध, अतीर्थंकर सिद्ध, स्वयंबुद्ध सिद्ध उसका शास्त्रीय आधार स्थापित करतेहुए मनीषी प्रवचनकार आदि का स्वरूप भी समझाया गया है। मुनिश्री अपने ने श्रमण-तत्त्वों का निरूपण किया है। ये समानान्तर छंद तात्विक विश्लेषण को आगमिक उद्धरणों की पाद-टिप्पणियों । द्वारा प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करते हैं। संक्षेप में यदि आत्मा छे, ते नित्य छे, छे कर्ता, निज कर्म। यह कहा जाय कि 'तत्त्व चिंतामणि' जिज्ञासु अध्येताओं छे भोक्ता, वली मोक्ष छे, मोक्ष उपाय सुधर्म।। के लिए किसी ज्ञान-कोश से कम नहीं, तो अत्युक्ति नहीं - (आत्मसिद्धि शास्त्र, ४३) होगी।। अत्थि जिओ तह निच्चा, कत्ता-भोत्ता य पुण्ण पावाणं । 'शुक्ल प्रवचन' (चार खंड) भी तात्विक विवेचन से अत्थि धुवं निव्वाणं, तदुवाओ अत्थि छट्ठाणेणं ।। परिपुष्ट है। यद्यपि इन्हें प्रवचन की संज्ञा से अभिहित - (प्रव. सारोद्धार द्वार १४८ गा.६४१) किया गया है, पर इन्हें सामान्य उपदेश की कोटि में न 'शुक्ल प्रवचन' के चतुर्थ खंड की भूमिका में वे रखकर गंभीर अनुचिंतन-साहित्य का अंग मानता ही समीचीन श्रीमदराजचंद्रजी के जैन-दर्शन से प्रभावित-प्रेरित होने की प्रतीत होता है। विद्वान् संतश्री ने अध्यात्म-योगी ओर संकेत करते हुए लिखते हैं-“प्रवचन में श्रीमद्जी के अध्यात्म-मनीषी श्री सुमनमुनि जी का सर्जनात्मक साहित्य | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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