Book Title: Sumanmuni ji ka Sarjanatmak Sahitya Author(s): Indarraj Baidya Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf View full book textPage 5
________________ सुमन साहित्य : एक अवलोकन संबंध में कवि का एक चिंतनप्रधान पद दृष्टव्य है:किण कारण तें हठकरी, पवन काय ते प्रीति / आवै कै आवै नहीं, इनकी याही रीति।। (ज्ञान गुटका, पद 17) व्याख्याता के अनुसार - "रे जीव! किस कारण से तूने पवन/श्वास-उच्छवास पर आधारित पवन रूप शरीर पर दृढ़ स्नेह किया है? यह श्वास आये या नहीं, उनकी यही रीति है। आज से दो हज़ार वर्ष पूर्व संत तिरुवल्लुवर ने भी साँसों की अनिश्चितता के संबंध में कुछ ऐसे ही भाव व्यक्त किये थे। संत कवयित्री सहजोबाई की वाणी भी इसी सत्य को स्वीकारती है। यथाः सहजो गुरु प्रताप से ऐसी जान पड़ी। नहीं भरोसा स्वाँस का आगे मौत खड़ी।। (सहजोबाई) साहित्य-स्रष्टा के रूप में मुनिश्री सुमन कुमार जी द्वारा विरचित चरितों को लिया जा सकता है। पंजाब श्रमण-संघ गौरव आचार्य श्री अमरसिंहजी महाराज की जीवनी लिखकर मुनिश्री ने अपने लेखकीय दायित्व का निर्वाह तो किया ही है, अपनी परंपरा के गरिमामय आचार्य के वर्चस्वी व्यक्तित्व को रूपायित करके श्रमण संघीय इतिहास के एक उज्जवल अध्याय को अक्षरांकित किया है। चरित-नायक की जीवनी के माध्यम से पंजाब की श्रमण-संघीय परंपरा के गौरवशाली इतिहास पर प्रकाश डालते हुए आद्याचार्य श्री हरिदासजी महाराज को श्रद्धापूर्वक स्मरण किया गया है, जिनका समय अठारवीं शताब्दी के मध्य तक पड़ता है। इन्हीं संत शिरोमणि की साधु-परंपरा में पूज्य पं. श्री रामलालजी महाराज के शिष्य बने चरित नायक श्री अमर सिंह जी महाराज। बीसवीं शताब्दी के आरंभ से लेकर आज तक का पंजाब स्थानकवासी श्रमण वर्ग, मुनिश्री के अनुसार, आचार्यश्री द्वारा प्रदान किया गया सुफल ही है। तेजस्वी युग पुरुष के जीवन को पर्याप्त शोधपूर्वक बीस अध्यायों में समेटा गया है। इस जीवन-चरित को पढ़कर प्रतीत होता है कि कैसी विषय परिस्थितियों में अनेक गतिरोधों को झेलकर आचार्य प्रवर ने अपनी परंपरा का रक्षण, संरक्षण और संपोषण करते हुए अपने आचार्यत्व की गरिमा स्थापित की थी। जीवनी में अनेक प्रेरक संस्मरण भी उद्धृत किये गये हैं, जिनमें आचार्य श्री की तर्कणा शक्ति, वाक्पटुता, शास्त्राध्ययन गंभीरता, सरलता, मनस्विता आदि गुणों की उत्कृष्ट झलक दिखाई पड़ती है। जंडियालागुरु (अमृतसर) में हुई शास्त्रचर्चा के दौरान अपनी सरलता, निर्भीकता और सत्यवादिता से उन्होंने संस्कृत पंडित का हृदय् जीत लिया था। नतमस्तक होकर पंडितजी ने कहा थाः" महाराज! आपकी आज्ञा हेतु मैं श्रमार्थी हूँ, आप जैसे सच्चे पुरुषों से शास्त्रार्थ करना बुद्धिमत्ता नहीं है। इस मताग्रह के वातावरण में सत्य बात कहना महापुरुष का ही लक्षण हो सकता है।” (दे. पंजाब श्रमण-संघ गौरव, पृ.३०) ऐसे महान् परंपरा रक्षक धर्माचार्य के जीवन के प्रेरणाप्रद प्रसंगों को अत्यंत श्रद्धा और भव्यता के साथ चित्रित करते हैं मुनिवर श्री सुमन कुमारजी। समीक्ष्य पुस्तक वस्तुतः जैन साधु परंपरा के महिमामय इतिहास का गौरव ग्रंथ ही है। वास्तव में यह शब्दांकन एक मनीषी संत की भव्य साहित्य-साधना की झलक मात्र है। उनके संपूर्ण ग्रंथों का अध्ययन पाठक को सारस्वत यात्रा का अलौकिक आनंद प्रदान करता है। पूज्य सुमनमुनिजी स्वाध्याय-मणि हैं, ज्ञान की खनि हैं। अपनी संपूर्ण श्रद्धा, निष्ठा, और सात्विकता के साथ वे विगत पचास वर्षों से वाङ्मय तप करते आ रहे हैं। उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान की अमूल्य कृति-मणियाँ प्रदानकर जैन समाज को उपकृत किया है। सत्य, औदार्य, आत्माभिमान के गुण उन्हें अपने गुरुजनों की शानदार विरासत से प्राप्त हुए हैं। ऐसे तेजस्वी संतों की मनस्विता को लक्ष्य करके ही किसी कवि ने कहा होगाः "सदाकत के लहू से सींचकर पाले हों जो गुंचे, खिजा में भी कभी वो फूल कुम्हलाया नहीं करते।" पूर्व निदेशक, आकाशवाणी, चेन्नई | अध्यात्म-मनीषी श्री सुमनमुनि जी का सर्जनात्मक साहित्य 26 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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