Book Title: Subhadra Sati Chatushpadika Author(s): Kanubhai V Sheth Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 2
________________ दियइ घणु छह दरिसण श्रवइ, सुभग महासइ लाखण कवइ, पहिली सरसति जीभह लाग, बंधु तणा तुहु दखउं मागा. तास पसाइ कवित हइ धणइ, भणई चरित स भदा तणउ, च पा-नयरि कहउँ विचारो, स भद्र-महासइ निवसई नारे. धरम - काजि जस हरखित चीतो, भवियह निसणउ कउनिगवीतो ? हाथ पाय पखालइ अंगी, तहिणा धरम ह नाही भं गो. ने मिसरी-सी दे हुरी जाइ, नीका कु सु मह पाछी भरइ, जिणु आराहइ चोखइ मनि, एक वार सो भक्खइ अन्नु अंबिल निवी करइ उपवास, तप तपेइ सा बारह मास, श्रावकनी छइ उत्तम जाति, जइसी निम्मल पुन्निम-राति महे सरी घर परिणिय सा ए, पी हरवाटहं धरम करे ए, सासु य पभणइ संभलि वहुए, अवर धरमु तु दु छंडहि सहुए. अम्ह धरि देउ नारायण अस्थि, वहुडिय जाह म पारसनाथे, सुभदा पभणइ बे कर जोडि, सुर आवहि ते तीसउ कोडि. ८. संभलि सासु अक्खउ एहो, जिणवर समउ न अच्छइ देओ, ते उ कोविहि सासू परजलई, जाणहु घिउ वइस करि ढलइ मणिहि माहि तिनि धरियड रोस, एहइ कोवि चढावि म दोस्, मुणिवर एक संसारह भग्गहु, अति धणु तापु तपला लग्गउ. १०. कठइ देह तसु मनि नवि ढलए, वीस विस्वा तसु संजम पलए, पंचेन्द्रिय तिणि मलियउ मान, काया कष्ट किधउ अप्पाणु. ११, [७९] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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