Book Title: Sramana 2005 07 10
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 222
________________ जैन जगत् : २१३ आप मिलनसार, मृदुभाषी एवं धर्मपरायण होने के साथ-साथ सादा जीवन, उच्च विचार रखने वाली महिला थीं। आप अन्त समय तक जिनेन्द्र देव का स्मरण करती रहीं। आप अपने पीछे भरा-पूरा परिवार छोड़ गयी हैं। आपके निधन पर अनेक विद्वानों, डा० जैन के शुभचिंतकों, मित्रों, रिश्तेदारों आदि ने गहरा शोक व्यक्त किया । इस अवसर पर श्री स्याद्वाद महाविद्यालय में आयोजित शोकसभा में आपको श्रद्धाञ्जलि अर्पित की गई। पार्श्वनाथ विद्यापीठ श्रीमती जानकी बाई जैन को अपनी हार्दिक श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता है तथा जिनेन्द्रदेव से प्रार्थना करता है कि वह डा० जैन को समता पूर्वक मातु-वियोग-दुःख सहन करने की सामर्थ्य प्रदान करे। इच्छाओं की पूर्ति में ही दुःख उस समय भगवान बुद्ध श्रावस्ती की मृगारमाता के पूर्णाराम प्रासाद में विश्राम कर रह थे। प्रवास और परिव्रजन के नैरंतर्य के कारण उन्हें थकावट अनुभव हो रही थी। मृगारमाता ने उनकी देख-रेख और सेवा का पूरा प्रबन्ध कर दिया था। मृगारमाता विशाखा का किसी उद्योग से संबन्धित कोई काम कौशलराज प्रसेनजित के यहाँ अटका हुआ था। उसके कारण उन्हें चैन नहीं मिल रहा था। सोचा यह था कि तथागत की उपस्थिति में वह कुछ धर्मचर्चा का लाभ लेंगी, पर वह तो बना नहीं। वह दूसरे ही दिन प्रसेनजित के पास जा पहुंची। प्रसेनजित ने इस बार भी टाल-मटोल कर दी। विशाखा यहाँ से निराश लौटीं। दोपहर की चिलचिलाती धूप में वैसे ही विशाखा सीधे भगवान बुद्ध के पास पहुंची और उन्हें प्रणाम कर खित्रवदन एक ओर बैठ गईं। अन्तर्यामी तथागत हँसे और बोले - "विशाखा ! इसलिए कहता हूँ कि अपनी इच्छाएँ बढ़ानी नहीं, कम करनी चाहिए। इच्छाओं की पूर्ति में जो पराधीनता है, वह दुःख है।" विशाखा ने कहा - "तो फिर भगवान ! ऐसा भी कोई उपाय है, जिससे अपनी इच्छाएँ कम की जा सकें ?" बुद्ध ने उत्तर दिया - "हाँ भन्ते ! अवश्य है, यदि हम सुख की खोज अपने भीतर करने लगें तो इच्छाओं की निस्सारता अपने आप प्रकट होने लगती है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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