Book Title: Sramana 2005 07 10
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 10
________________ भारतीय संस्कृति के दो प्रमुख घटकों का सहसम्बन्ध (वैदिक एवं श्रमण ) भारतीय संस्कृति की दो धाराएँ भारतीय संस्कृति एक समन्वित संस्कृति है । उसकी संरचना में आर्य और द्रविड़ तथा उनसे विकसित वैदिक और श्रमण धाराओं का महत्त्वपूर्ण अवदान है। जहां वैदिक धारा मूलतः प्रवृत्ति प्रधान रही है, वहीं श्रमण धारा निवृत्ति प्रधान रही है। चाहे प्रारम्भ में वैदिक धारा और श्रमण धारा स्वतन्त्र रूप में अस्तित्व में आयी हो, किन्तु कालान्तर में इन दोनों धाराओं ने परस्पर एक दूसरे से बहुत कुछ ग्रहण किया है। वर्तमान युग में जहां वैदिक धारा का प्रतिनिधित्व हिन्दू धर्मदर्शन करता है, वहीं श्रमणधारा का प्रतिनिधित्व जैन और बौद्ध धर्म करते हैं। किन्तु यह समझना भ्रान्तिपूर्ण होगा कि वर्तमान हिन्दू धर्म अपने शुद्ध स्वरूप में मात्र वैदिक धारा का प्रतिनिधि है। वर्तमान हिन्दू धर्म में श्रमणधारा के अनके तत्त्व समाविष्ट हो गये हैं। आज यह कहना कठिन है कि श्रमण धारा के प्रतिनिधि जैन और बौद्ध धर्म वैदिक धारा और उससे विकसित हिन्दू धर्म से पूर्णत: अप्रभावित रहे हैं। यदि हम भारतीय संस्कृति के सम्यक् इतिहास को समझना चाहते हैं तो हमें इस तथ्य को दृष्टिगत रखना होगा कि कालक्रम में उसकी विभिन्न धाराएं एक दूसरे को किस प्रकार प्रभावित करती रही हैं। कोई भी संस्कृति और सभ्यता शून्य में विकसित नहीं होती हैं। देशकालगत परिस्थितियों के प्रभाव के साथ-साथ वह सहवर्ती अन्य संस्कृतियों से भी प्रभावित होती है। यह सत्य है कि प्राचीन वैदिक धर्म यज्ञ-याग और कर्मकाण्ड प्रधान रहा है और उसके प्रतिनिधि वर्तमान हिन्दू धर्म में आज भी इन तत्त्वों की प्रधानता देखी जाती है किन्तु वर्तमान हिन्दू धर्म में संन्यास और मोक्ष की अवधारणा का भी अभाव नहीं है। कालक्रम में वैदिक धर्म ने अध्यात्म, संन्यास, वैराग्य एवं तप-त्याग के तत्त्वों को श्रमण परम्परा से लेकर आत्मसात किया है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह स्पष्ट है कि प्रारम्भिक वैदिक काल में ये तत्त्व उसमें पूर्णत: अनुपस्थित थे। प्राचीन स्तर की वैदिक ऋचाएं इस सम्बन्ध में पूर्णतः मौन हैं, किन्तु आरण्यकों और उपनिषदों के काल में ही श्रमण परम्परा के इन तत्त्वों को वैदिक परम्परा में मान्यता प्राप्त , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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