Book Title: Soya Man Jag Jaye
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ प्रस्तुति मन का अस्तित्व दो अवस्थाओं में है। वह सोता भी है और जागता भी है। मनुष्य का लक्ष्य रहा है वह सोया न रहे, जागृत रहे। उसका पुरुषार्थ भी इस दिशा में होता रहा है। फिर भी उसकी नियति है कि उसका मन सोने को अधिक पसन्द करता है। प्रस्तुत सन्दर्भ में मन का अर्थ हैमनन शक्ति। मनुष्य सच्चाई को सुनता है, पढ़ता है किन्तु उस पर मनन नहीं करता या बहुत कम करता है। मनन के अभाव में जाना हुआ सत्य भोगा हुआ सत्य नहीं बनता, अनुभव के स्तर पर नहीं उतरता। अनुभवशून्य ज्ञान समस्या का समाधान कम करता है, स्वयं समस्या बनकर सामने उपस्थित हो जाता है। आवश्यकता है अनुभव की। अनुभव के लिए आवश्यकता है प्रयोग की, अभ्यास की। प्रयोग या अभ्यास-काल में जो ज्ञान होता है, वह उधार का नहीं होता, अपना होता है। अपने ज्ञान को जागृत करने के लिए, अनुभव चेतना को विकसित करने के लिए प्रस्तुत पुस्तक सहायक बन सकती है ऐसा मैं सोचता हूं। बुद्धि से उपजा शब्द बुद्धि को छू लेता है, अन्तरात्मा को नहीं छूता। अनुभव से उपजा शब्द अंतश्चेतना तक पहुंच जाता है। इसका मुझे अनुभव है। उस अनुभव ने ही आज के प्रवृत्ति-बहुल युग में निवृत्ति के स्वर को उभारा हैं, बाहर की ओर दौड़ती दुनिया को अपनी ओर देखने की प्रेरणा दी है। । प्रस्तुत ग्रन्थ के संपादन का कार्य मुनि दुलहराजजी ने किया है। वे इस कार्य में दक्ष है। दक्षता और श्रम दोनों के योग से स्वयं सौष्ठव आ जाता है। आचार्यश्री तुलसी ने समाज को अनेक घोष दिए। उनसे सामाजिक चेतना को नए आयाम मिले, नई प्राणशक्ति का संचार हुआ। अमृत-महोत्सव के अवसर पर एक घोष दिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 ... 250