Book Title: Sirisiriwal Kaha Part 01
Author(s): Ratnashekharsuri, Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan

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Page 12
________________ सिरिसिरि अस्थित्य जंधुदीवे दाहिणभरहद्धमज्झिमे खंडे / बहुधणधन्नसमिद्धो, मगहा देसो जयपसिद्धो // 2 // अहंदादि नवपदानि हृदयकमल मध्ये ध्यात्वा उत्तमं श्री सिद्धचक्रस्य-यन्त्रराजस्य माहात्म्यं किमपि | 14/ जल्पामि-कथयामि // 1 // अस्मिन् जम्बूद्वीपे दक्षिणभरतार्द्धस्य मध्यमे खण्डे बहु-धनधान्यसमृद्धो जगत्प्रसिद्धो मगधाख्योदेशोऽस्ति // 2 // 1 हिअय कमलमज्झमीति-अत्र हृदयमन्तः करणं कमलं पद्म मिवेत्युपमितसमासेन हृदये सहृदय हृदय चमत्कारि सादृश्यावबोधात् “साम्य वाच्यमवैद्ययं वाक्यैक्य उपमाद्वयोः" इति लक्षणे लक्षित उपमालङ्कारः / हृदयमेवकमलमिति मयूरव्यंसकादित्वात् समासे हृदये कमलाभेदबोधनात् " तद्रूपकमभेदो य उपमानोपमेययोः” इति काव्य प्रकाशीय लक्षण लक्षितं रूपकमेव कथन्नालङ्कार इति नाशङ्कनीयम्. रूपकसमासस्य उत्तर पदार्थ प्रधानतया तथाभूत कमलावच्छेदेन अहंदादिनवपद ध्यानायोगात् बाधक प्रमाणोपस्थितेः / इदमत्रावधेयम्-"मुखेचन्द्रः" इत्यादौ समासस्थले रूपके मुखमेवचन्द्र इति मयूरव्यंसकादित्वात् कर्मधारयः, उपमायान्तु मुखंचन्द्र इवेत्युपमितसमास ऊरीकार्यः, तत्र रूपके आरोप्यमाणत्वेन विशेष्यतया उपमानपदार्थ एवोपमेयं तिरोधाय क्रिया या मन्वेति उपमायान्तु आरोपभावेन वर्णनामुख्यो द्देश्यत्वेन च विशेष्यतया उपमेय पदार्थपव क्रियासम्बन्धः / तेन मुखचन्द्रः प्रकाशते इत्यादौ प्रकाशस्य प्रभारूपतयाचन्द्र सम्भवात् मुखेचासंभवात् प्रकाशते इति पदं रूपकस्य साधकम् , उपमायास्तु बाधकमिति रूपकमेव, “युवा प्रियाया मुखचन्द्रं चुम्बति" इत्यादौ चुम्बनस्य वक्तृसंयोगरूपतया मुखे संभवात्

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