Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 8
________________ (६) प्रारंभ कर दिया। वह मंगल प्रभात २० मार्च, २००२ का था। हम आचार्य महाप्रज्ञ के साथ सहयात्री बनकर यात्रायित थे। यात्रा के साथ मेरा अनुवाद कार्य भी उत्साहजनक और संतोषजनक स्थिति में गतिमान् था। लगभग डेढ महीने की समयावधि में मेरा वह अनुवाद कार्य अहमदाबाद पहुंचने से पूर्व परिसंपन्न हो गया। ___ मैंने ग्रंथ को पठनीय और जनोपयोगी बनाने के लिए केवल ग्रंथ का अनुवाद ही नहीं किया अपितु उसे सर्वसुलभ, सुबोध, सुगम और सर्वजन-रुचिकर बनाने के लिए ग्रंथगत विविध विषयों से अनुबंधित 'अवबोध' को भी लिखा है। वे जिज्ञासु पाठकों के प्रकरणगत ज्ञान के लिए एक प्रकार से आलोकस्तम्भ हैं। आज के मानस में कथाओं को पढने की विशेष रुचि रहती है। प्रस्तुत ग्रंथ में मैंने आगमिक और आगमेतर–दोनों प्रकार की कथाओं का समावेश किया है। वे सभी कथाएं ग्रंथगत विविध प्रकरणों को आधार बनाकर लिखी गई हैं। इनके अतिरिक्त परिशिष्ट में व्याकरण विमर्श, ग्रंथ में प्रयुक्त धातुएं एवं उनका अर्थ तथा कोश विमर्श भी सम्मिलित किए गए हैं। इस कार्य में पूज्यवरों का मंगल आशीर्वाद और सतत प्रेरणापाथेय मेरे अन्तस्तल को छूता रहा है और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्षरूप में अनेक मुनियों का सहयोग मुझे मिला है, उनका स्मरण भी अस्थानीय नहीं होगा। ___मैं सर्वप्रथम गणाधिपति पूज्यपाद श्रीतुलसी के चरणों में श्रद्धाप्रणत हूं। उनके अनुशासन में मैंने बहुत कुछ सीखा, फिर भी बहुत कुछ सीखना शेष रह गया। आज भी उनके पढ़ाने का कलाकौशल, अनुशासनशैली, शैक्ष सन्तों को प्रोत्साहित करने की कला आदि दुर्लभ विशेषताएं मेरे मानस पटल पर तरंगित हैं। __ वर्तमान में उनके ही यशस्वी उत्तराधिकारी प्रज्ञापुरुष आचार्यश्री महाप्रज्ञ हैं। उन्होंने धर्मचक्र का प्रवर्तन कर मानव कल्याण के लिए एक प्रायोगिक धर्म का स्वरूप प्रस्तुत किया है। दीक्षा लेते ही मुझे चरण चंचरीक बनकर उनके चरण कमलों की वरिवस्या का अत्यधिक समीपता से अवसर मिला। मैंने उनके जीवन से बहुत कुछ सीखा और पाया। जीवन के निर्माण में उनका वरदहस्त मेरे सिर पर रहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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