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श्लोक ३०-३४
अन्वयः -
यः सत्याञ्चितं वचनं वक्ति तस्य (पुंसः) (सत्यप्रभावात्) अग्निर्जलम्, अर्णवः स्थलम्, अरिर्मित्रम्, सुराः किङ्कराः, कान्तारं नगरम्, गिरिर्गृहम्, अहिर्माल्यम्, मृगारिर्मृगः, पातालं बिलम्, अस्त्रम् उत्पलदलम्, व्यालः शृगालः, विषं पीयूषम्, विषमं समञ्च (स्यात्) ।
अर्थ
जो व्यक्ति सत्ययुक्त वचन बोलता है (सत्य के प्रभाव से) उसके लिए अग्नि जल, समुद्र स्थल तथा शत्रु मित्र के समान हो जाते हैं। देवता सेवक, अरण्य नगर तथा पर्वत गृह के समान हो जाते हैं। सर्प माला, सिंह हरिण तथा पाताल छिद्र के समान बन जाते हैं । अस्त्र ( तलवार आदि) कमलदल, दुष्ट हाथी सियार, विष अमृत तथा विषम स्थान समतल के समान बन जाते हैं।
७. अस्तेयप्रकरणम्
तमभिलषति सिद्धिस्तं वृणीते समृद्धि
स्तमभिसरति कीर्त्तिर्मुञ्चते तं भवार्त्तिः । स्पृहयति सुगतिस्तं नेक्षते दुर्गतिस्तं,
परिहरति विपत्तं यो न गृह्णात्यदत्तम् ||३३॥
अन्वयः -
योऽदत्तं न गृह्णाति तं सिद्धिरभिलषति, तं समृद्धिः वृणीते, तं कीर्त्तिरभिसरति, तं भवार्त्तिः मुञ्चते, तं सुगतिः स्पृहयति, तं दुर्गतिः न ईक्षते, तं विपत् परिहरति ।
अर्थ
२१
जो मनुष्य अदत्त - बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण नहीं करता उसकी अणिमादि सिद्धि अथवा मुक्ति अभिलाषा करती है, समृद्धि उसका वरण करती है, कीर्त्ति उसके सम्मुख जाती है, संसार की पीड़ा उसे छोड़ देती है, सुगति उसकी स्पृहा करती है, दुर्गति उसकी ओर दृष्टिपात नहीं करती और विपत्ति उसका परिहार कर देती है।
अदत्तं नादत्ते कृतसुकृतकामः किमपि यः, शुभश्रेणिस्तस्मिन् वसति कलहंसीव कमले । विपत्तस्माद् दूरं व्रजति रजनीवाम्बरमणे
१. मालिनीवृत्त । २. शिखरिणीवृत्त ।
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विनीतं विद्येव त्रिदिवशिवलक्ष्मीर्भजति तम् ।। ३४ । ।
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