Book Title: Siddha Hemchandra Shabdanushasan
Author(s): Chandrasagar Gani
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 20
________________ विशेषमां क्या क्या सूत्रमा अवचूणि अने लघुन्यासर्नु साम्यपणुं छे ?, नव पादना सूत्रोमाथी अवचूर्णिकारे १०७ सूत्रो पर अवचूर्णि केम न लखी ?, ए १०७ सूत्रोमांना केटला सूत्रो पर लघुन्यासकारे लघुन्यास लख्यो ?, अवचूर्णिनी अने लघुन्यासनी विशेषताओ शी शी छे ?; विगेरे विगेरे प्रकरणोथी भरपूर लखाण हमारा तरफथी तैयार कराता 'तुलनात्मकदृष्टिए श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन' नामना निबन्धमा दरेक विषय स्पष्टीकरणपूर्वक आपवामां आवशे ।। ___ नव पादना सूत्रोमांथी उपर जणावेला 'तदन्तं पदम् ' ए एक ज सूत्र नहि पण अनेक सूत्रो तो अक्षरशः लघुन्यासने मळतां छे, अने केटलांएक सूत्रो ओछावत्ता प्रमाणमां लघुन्यासने मळतां छे ज्यारे थोडांक सूत्रोमा अवचूर्णिकारनी स्वतंत्र कल्पना अने स्पष्टीकरण मालूम पडे छे, तेवी ज रीतिए लघुन्यासाकारे पण केटलाएक सूत्रो पर स्वतंत्र कल्पना अने युक्तिपुरस्सरना बुद्धिवैभव देखाड्यां छे ते पण अत्यन्त प्रशंसनीय छ । अवचूर्णिकारनी १ स्वन्तत्र कल्पना, २ स्पष्टीकरण अने ३ प्रायोगिक चर्चा माटे अनुक्रमे प्रस्तुत प्रकाशनना पृ. ३ पं. १८ थी २८, पृ. ४ पं. १ थी ११; अने पृ. २८ पं. ८ थी २० सुधीनुं लखाण वाचवा अने विचारवाथी अवचूर्णिकारनी स्वतन्त्र कल्पना, अने स्पष्टीकरणपूर्वकनी प्रायोगिक-व्यवस्थाओनुं सुन्दर व्यवस्था-विज्ञान प्राप्त थाय छ । उपरना प्रसंगोनुं परिशीलन करनारने सहेजे समजाय ते, छे के अवचूर्णिकार प्रथम थयेला हशे अने लघुन्यासकार पछी थया हशे ?, अगर तो बन्ने समकालीन अभ्यासियो हशे ?; आ प्रसंगनो यथाशक्य निर्णय तो निर्णीतभूत-अवचूर्णि अने लघुन्यासना रचनासंवत् , लेखनसंवत् अने तत्कालीन-संयोगोने तपासीने ज करवो जरुरी छ । आ प्रकरणमा बन्ने शास्त्रकारो समकालीन हता एटलं समजीने हवे आपणे आगळ वधवा प्रयत्नशील थइए । श्रुतज्ञानना साधनोनी दिन-प्रतिदिन अभिवृद्धि कर्या ज करवी अने प्राप्त थयेला अमूल्य साहित्यनुं संरक्षण करवू ए शासनप्रभावनानुं अद्वितीय अंग छे । आ श्रुतज्ञानना साधनोनी अवचूर्णिना रचनासमयने अने लेखनसमयने निहाळतां समजी शकाय अभिवृद्धि अने संरक्षण छे के- ग्रन्थ लगभग ७३८ वर्षे आपणने दृष्टिगोचर थाय छ । पूर्वकाळनी सुन्दर लेखनपद्धतिथी ७००-८०० वर्ष उपरांतनी लखेली प्रतिओना दर्शन थाय ए ओछा आनन्दनो विषय नथी. परन्तु क्षणभर हास्य करीने अगर तो प्रशंसाना बे-चार वचनो बोलीने इतिकर्तव्यता मानी लेवामां आपणी मोटी भूल छे, कारण के पूर्वकालीन पुरुषोए तन-मन अने धननो सद्व्यय करीने अने करावीने नवा ज्ञानभंडारोनी स्थापना करी छे, जूना ज्ञानभण्डारोनो जीर्णोद्धार कर्यो छे; एटलुंज नहि पण नवनवीन प्रतिओनुं आलेखन करावीने अपूर्व-अमूल्य-अलौकिक साहित्यनी वृद्धि करीने ते साहित्य खजानो आपणने समर्पण करीने जेम पोतानी फरज बजावी ले तेम तेओनी माफक आपणे पण फरज बजाववानी छ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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