Book Title: Siddh Hemchandra Vyakaranam Part 02
Author(s): Darshanratnavijay, Vimalratnavijay
Publisher: Jain Shravika Sangh

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Page 475
________________ ( ४६८ ) शकधृषशारभलभसहार्हग्लाघटास्तिसमर्थार्थे च तुम् शक्याद्यर्थेषु इच्छार्थेषु च धातुषु समर्थार्थेषु नामसूपपदेषु कर्मभूताद्धातोस्तुम् स्यात् । शक्नोति पारयति वा भोक्तुम् । एवं धष्णोति, जानाति, आरभते, लभते, सहते, अर्हति, ग्लायति, घटते, अस्ति, समर्थः, इच्छति, वा भोक्तुम् ॥६०॥ शक-समर्थार्थत्वादेव सिद्धेशकग्रहणमसमर्थार्थम् । क्रियायां क्रियार्थीयो०' ।५।३।१३। इत्यनेन क्रियायां क्रियायामुपपदे तुम् विहित इत्यसति क्रियायां क्रियार्थायामुपपदे, अक्रियोपपदे च न स्यादिति वचनम्, अयमाशयः-अक्रियार्थेष्वपि शकादिषु तुम् यथा स्यादित्येवमर्थोऽयमारम्भः, नहि शक्नोति भोक्त मित्यादौ क्रियार्थोपपदं गम्यते, कि तहि ? अर्थान्तरमन्यदेव इह ताबच्छक्नोति भोक्तुम, सहते भोक्तुम, जानाति भोक्तुमिति प्रावीण्यं गम्यते, ग्लापयति भोक्त मिति तदशक्तता गम्यते, घटते भोक्तुम् अर्हति भोक्त मिति तद्योग्यतामात्रम्, आरभते भोक्त मिति भुजेराद्यावस्था न क्रियान्तरम, लभते भोक्त मिति अप्रत्याख्यानम्, अस्ति भोक्तुमिति सम्भवमात्रमिति ॥६॥ ॥ इति पञ्चमाध्याय ॥ प्रशंसा की भूखी आत्मायें सच्चे गुरु से और सच्चे धर्म सेवंचित रहती है। जिन आत्माओं को अपनी प्रशंसा सुननी अच्छी लगती है, ऐसी आत्मा प्रायः करके धर्म से वंचित रहती है। क्योकि यह वहां ही धर्म करे, ऐसी ही जगह पर जावे कि जहां उनकी प्रशंसा होती हो । ऐसे प्रशंसा के भूखे लोगों की प्रशंसा करके उसका गलत लाभ लेने वाले भी बहुत होते है ऐसे इनके घर लेते है । परस्पर प्रशंसा करके आनन्द मानते है। परिणाम यह पाता है कि धर्म प्रवृत्ति करने पर भी, दानादि करने पर भी ये विचारे धर्म से वंचित रह जाते है। परमपूज्य कलिकालकल्पतर आचार्षदेव श्रीविजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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