Book Title: Shrutsagar Ank 1996 01 002
Author(s): Manoj Jain, Balaji Ganorkar
Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 6
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुत सागर, माघ २०५२ www.kobatirth.org भारत वर्ष का इतिहास क्षत्रिय राजाओं के बीच युद्ध-सन्धि व विजय-पराजय की रोमांचकारी घटनाओं से भरा पडा है. ऐसे अनेकों पराक्रमी राजा इस भरत क्षेत्र पर शासन कर चुके हैं, जिनकी यशोगाथा की सुगंध आज भी इतिहास के पन्नों में व्याप्त है. परन्तु चौलुक्य वंश में उत्पन्न त्रिभुवनपाल के पुत्र कुमारपाल के जैसा कोई अहिंसा प्रतिपालक राजा नहीं हुआ, जिन्होंने न केवल अपनी माता काश्मीर देवी की कुक्षि को पवित्र किया, बल्कि आचार्य हेमचन्द्र सूरि की निश्रा में ३० वर्षों तक राज्य कार्य सम्हालते हुए परमार्हत्' की उपाधि से अलंकृत होकर इतिहास में अमर हो गया. इतिहास के झरोखे से परमार्हत कुमारपाल : एक अद्वितीय जैन सम्राट् कुमारपाल भूपाय विमेकं वति ? | जिन्दधर्ममासाद्य, यो जगतन्मयं व्यधात्। पृथ्वी पर राजा कुमारपाल के किस एक गुण का वर्णन करें ? जिन्होंनें जैन धर्म को नहीं आएगा और मेरी जीत होगी. कुमारपाल यह सुनकर चिन्तित हुए, आचार्य हेमचन्द्र अपना कर सारे संसार को जैन धर्ममय बना दिया. सूरि के पास जाकर सारी बात सुनाई, सूरिजी ने उन्हें पद्मासन लगाकर एक जाप करने को कहा, जाप पूरा होते ही तुर्किस्तान का बादशाह पलंग सहित हवा में तैरता हुआ कुमारपाल के समक्ष पहुँचा. सूरिजी ने उससे कहा अगर अपना भला चाहते हो तो अभी कुमारपाल से क्षमा माँगो और अपने राज्य में प्रति वर्ष छः महीने जीव दया का पालन करवाओ, तो तुम्हारा छुटकारा हो सकता है, उसने यह शर्त सहर्ष स्वीकार की... ईदृग् जगद्गुरु शक्तिभुक्तिमुक्ति प्रदायका । ईदृग्दृतो राजा बाजा काले कली कृतः । शक्ति, सौभाग्य और मुक्ति देनेवाले ऐसे जगद्गुरू (हेमचंद्राचार्य) और दृढव्रती (सुश्रावक कुमारपाल) इन दोनों का संयोग इस कलिकाल में कहाँ ? कुमारपाल के जीवन का ५० वर्ष कष्टों से भरा था. पुत्रहीन सिद्धराज जयसिंह को जब कलिकाल सर्वन आचार्य हेमचन्द्रसूरि से यह ज्ञात हुआ कि त्रिभुवनपाल का पुत्र कुमारपाल उसके राज्य का उत्तराधिकारी होगा तो उसने कुमारपाल को मरवाने की बहुत चेष्टा की. कुमारपाल जान बचाने के लिए वेश बदलकर जहाँ-तहाँ मारामारा फिरता था. एक दिन सिद्धराज के सैनिकों के द्वारा पीछा किए जाने पर कुमारपाल भयभीत होकर सूरिजी के उपाश्रय में आया, दयालु सूरि जी ने गुप्त रीति से पुस्तकों के भंडार में छिपाकर उस शरणागत की रक्षा की. वहाँ सें जाते-जाते कुमारपाल ने सूरिजी से पूछा कि मेरे संकट कव टलेंगें. सूरि जी ने भविष्यवाणी की कि ११९९ मार्गशीर्ष कृष्ण, चतुर्थी, रविवार के दिन पुष्य नक्षत्र में दिन के तीसरे प्रहर तुम्हें राज्य मिलेगा. कुमारपाल ने नम्र होकर कहा कि यदि मुझे राज्य मिला तो वह आपको अर्पित कर मैं जीवन भर आपकी सेवा करूंगा. इसी प्रकार भटकते हुए एकबार उज्जयिनी नगरी में कुण्डलेअर के मन्दिर में लगे शिलालेख पर उसकी नजर पड़ी, लिखा था : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६ परम दयालु महाराज कुमारपाल ने कर्णाटक, गुजरात, कोंकण, जालंधर, मेवाड़ आदि अपनी सत्ता के अठारह देशों में दान, विनय, वल और मैत्री पूर्वक जीवदया का पालन करवाया, उनके राज्य में जूं और कुंथु जैसे छोटे जीवों को मारने की भी सख्त मनाई थी. कुमारपाल द्वादश व्रतों का नियम पूर्वक पालन करते थे. राजा के इस नियम की खवर सर्वत्र फैल गई. तुर्किस्तान के एक बादशाह ने चातुर्मास में राजा कुमारपाल पर चढाई की. उसका इरादा था कि राजा इस समय में फौज लेकर सामने आचार्य हेमचन्द्रसूरिजी के व्याख्यानों से प्रभावित होकर राजा कुमारपाल ने स्वर्गी वात्सल्य और गरीबों के दुःखों को दूर करने के लिए एक विशाल दानशाला बनवायी. प्रत्येक उपवास के पारणे पर स्वधर्मी लोगों के साथ बैठ कर भोजन किया करते थे, दानादि द्वारा सहस्रों अन्य धर्मावलम्वियों को भी जैन धर्म का अनुरागी बनाया. इस प्रकार उन्होंने कलिदुष्टकों को जीतकर सत्युग की जागृति की. उन्होंने पाटण में २५ हाथ ऊँचा ७२ जिनालय युक्त मंदिर बनवाया, उसमें १२५ अंगुल ऊँची श्री नेमिनाथ स्वामी की प्रतिमा भरवायी. देशाटन करते हुए एक बार कुमारपाल के द्वारा प्रमाद से एक चूहे की हिंसा हुई थी, उसके प्रायश्चित में 'मूषकविहार' नाम से चैत्य वनवाया. जिनागम की आराधना करने में तत्पर चौलुक्यपति कुमारपाल ने २१ ज्ञानभंडार वनवाये. आचार्य हेमचन्द्र सूरिजी के लिखे त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित्र को सोने चाँदी के अक्षरों से लिखवाया, ११ अंग व १२ उपांगों की भी एक-एक प्रति स्वर्णाक्षरों से लिखवाई. एक बार छ'री' पालित संघ में यात्रा के दौरान गिरनार पर्वत के ऊपर चढ़ते हुए अचानक पर्वत काँपने लगा. राजा ने डरते हुए आचार्य हेमचन्द्रसूरिजी से इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि वृद्ध पुरुषों का ऐसा कथन है कि इस पर्वत पर दो भाग्यशाली एक साथ नहीं चढ सकते; अगर चढते हैं तो उपद्रव होता है. तव राजा पुणे वाससहस्से सयाण वरिसाण नवनवई कलिए । होहि कमरनरिन्दो तुह विक्कमराय सरिच्छो ।। हे विक्रमराजा ! ११९९ वर्ष व्यतीत होने के बाद तुम्हारे जैसा कुमारपाल नामक प्रतापी ने सूरिजी से आगे जाने का निवेदन किया और स्वयं उनके पीछे गये. राजा होगा. वस्तुतः कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य तथा गूर्जरेश्वर परमार्हत् कुमारपाल का संयोग जैन धर्म के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है. वि.सं. १२२९ में आचार्य हेमचन्द्रसूरिजीने अपनी नश्वर काया को छोडकर कालधर्म प्राप्त किया. इसके छः महिने के बाद राजा कुमारपाल भी अपने राज्य के लोलुप उत्तराधिकारी अजयपाल के द्वारा विष दिये जाने के कारण अन्तिम अवस्था को प्राप्त हुए. उनकी इस अवस्था को देखकर कोई कवि बोला एक वृद्ध विद्वान से पूछने पर ज्ञात हुआ कि पूर्वकाल में राजा विक्रमादित्य ने एकवार आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर से पूछा था कि मेरे बाद मेरे जैसा कोई जैन राजा होगा या नहीं? इसके उत्तर में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने यह गाथा कही थी. ११९९ वर्ष पहले की गई इस भविष्य वाणी से प्रभावित होकर राजा कुमारपाल के मन में जैन धर्म तथा जैनाचार्य के प्रति अपार श्रद्धाभाव प्रगट हुआ. विविध कष्टों व झंझावातों का साहस पूर्वक सामना करते हुए जीवन के पचासवें वर्ष में पाटण की राजगद्दी ने कुमारपाल का स्वागत किया. अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार राजा कुमारपाल ने आचार्य हेमचन्द्र सूरि को समस्त राज्य अर्पित करने की अभिलाषा प्रकट की, परन्तु त्यागी साधुओं को राज्य से क्या प्रयोजन? उन्होंने अपने उपकार के बदले कुमारपाल से तीन वचन माँगे १. प्राणी मात्र का वध बंद कर सभी जीवों को अभय दान दो, २. प्रजा की अधोगति के मुख्य कारण दुर्व्यसन, द्यूत, मद्य, मांस, शिकार आदि पर प्रतिबंध लगाओ, ३. परमात्मा महावीर की पवित्र आज्ञा का पालन करते हुए सत्य धर्म का प्रचार करो. राजा कुमारपाल ने यावज्जीवन इन तीनों वचनों का अक्षरशः पालन किया. अपने शासन में हिंसा, चोरी, सप्तव्यसन आदि अनिष्टों को दूर कर दिया. वे प्रतिदिन सूरीश्वरजी का धर्मोपदेश सुनने लगे. दिन प्रतिदिन जैन धर्म में उनकी आस्था वढने लगी, संसार की असारता का अनुभव होने लगा. कुछ ही दिनो में उन्होंने जैन शास्त्रोक्त द्वादशव्रत स्वरूप श्रावकधर्म अंगीकार कर लिया, अनेक प्रकार से जैन धर्म की प्रभावना करने लगे, सर्वत्र जैन धर्म का जय जयकार होने लगा. यह सब देख कर श्री हेमचन्द्राचार्य अपने जीवन को सफल मानने लगे. कृतकृत्योऽसि भूपाल ! कलिकालेपि भूतले । आमंत्रयति तेन त्यां, विधिः स्वर्गे यथा विधि ।। हे महाराज ! आप इस कलिकाल में भी अपने पुण्यकर्मों के कारण समस्त पृथ्वी पर कृतकृत्य है, इसलिये भाग्य आपको उत्साहपुर्वक स्वर्ग से आमंत्रित करता है. वि.सं. १२३० में राजगद्दी के ३० वर्ष ९ मास और २७ दिन भोग कर अन्त में उन्होंने सर्वज्ञदेव जिनेश्वर, कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य तथा सर्वज्ञकथित धर्म का स्मरण करते हुए स्वर्गमन किया. For Private and Personal Use Only महाराज कुमारपाल इस कलियुग में एक अद्वितीय आदर्श नृपति थे. वे न्यायप्रिय, दयालु, परोपकारी, पराक्रमी और धर्मात्मा थे. इस परमार्हत् ने १४०० प्रासाद वनवाये, ७२ सामंतों पर अपनी आज्ञा चलाई, १८ देशों में जीवदया का प्रसार किया, १६,००० जिनमंदिरों का उद्धार कराया, १४४४ नये जिन चैत्यों पर कलश चढाए, ९८ लाख रूपया दान किया. तारंगा तीर्थ क्षेत्र में भारतवर्ष की शिल्पकला का अद्वितीय नमूना स्वरूप उत्तुंग जिनालय आज भी कुमारपाल की जैनधर्म प्रियता को जग जाहिर कर रही है. उन्होंने ७ वार तीर्थयात्राएँ कीं, 9. परनारी सहोदर, [शेष पृष्ठ ५ पर

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