Book Title: Shravaktva ka Suraksha Kavach
Author(s): Kalpalatashreeji
Publisher: Z_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf

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Page 3
________________ स्वः मोहनलाल बांठिया स्मृति ग्रन्थ आत्मसाधना के महापथ पर बढ़ने के लिए बारह व्रतों के आगमिक विधान की जानकारी इस ग्रन्थ में बड़ी स्पष्टता से उल्लिखित है । आधुनिक सन्दर्भों के साथ उनकी संगति बौद्धिक लोगों के मस्तिष्क में नई स्फुरणा पैदा करने वाली है। व्रतों का स्वीकरण • पुरूषार्थ को पंगु बनाए, यह कभी मान्य नहीं हो सकता। दूसरी ओर पदार्थों का अति उपयोग अमीरी का महारोग फैलाए, यह अज्ञानता का प्रतीक होता है । दोनों के मध्य फैला असंतुलन आज विश्व समस्या का आकार ले चुका है। पूज्य गुरूदेव ने श्रावक समाज को संतुलन की प्रक्रिया का बोध देते हुए कहा गरीबी गौरव गंवाना अमीरी अभिशाप है, मांग खाना, मान खोना, मानसिक संताप है । भले कृषि वाणिज्य श्रम से अर्थ का अर्जन करें, पर जुगुप्सित घृणित कर्मादान का वर्जन करें ।। पापभीरूता, वैराग्य, संयम श्रावक जीवन के ऐसे भूषण हैं जो आम व्यक्ति से श्रावक की अलग पहचान बनाते हैं। जहां श्रावक स्वयं दूसरों के लिए समस्या नहीं बनता वहां समस्या को बढ़ाने में अपना योगदान भी नहीं देता । उसका लक्ष्य युग प्रवाह में बहना नहीं, सैद्धांतिक धरातल पर खड़ा रहना होता है । अनुस्त्रोत में चलना स्वाभाविक है और सुविधादायक है। उससे बचना उतना ही प्रयत्नसाध्य है । अपसंस्कृति के बढ़ते प्रचलन से श्रावक समाज भी अछूता नहीं रह सका। फलतः जीवन में ऐसे मूल्यों का प्रवेश हो गया जो जैन संस्कृति की चौखट में फिट नहीं बैठ पा रहा है। बढ़ती हुई असंयम की मनोवृत्ति, आर्थिक आसक्ति, पदार्थपरक दृष्टिकोण, सुविधावाद तथा सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास आदि तत्त्व सीधे जैन संस्कारों पर आक्रमण कर रहे हैं। जब युग पुराने मूल्यों को नकार देता है और सर्व सम्मत नए मूल्यों की प्रतिष्ठा नहीं हो तब समाज का अनीप्सित घटनाओं से बच पाना असंभव सा हो जाता है। एक ओर सामाजिक रीति रिवाज बदलते हैं, मर्यादा और वर्जनाएं मूल्यहीन बनती हैं, दूसरी ओर मानसिक स्वास्थ्य और देश का वातावरण भी विकृत बनता है। श्रावक इस दृष्टि से सोद्देश्य जागरूकता के साथ नया मोड़ लें, यह गुरूदेव को अभीष्ट है। इसलिए श्रावक को आपने जैन-जीवन-शैली का महत्त्वपूर्ण आयाम दिया और दैनिक चर्या में ऐसे व्यावहारिक बिंदुओं को सम्मिलित किया जो व्यक्ति, परिवार, समाज, प्रांत और राष्ट्र के लिए जरूरी है Jain Education International 2010_03 १६८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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