Book Title: Shravaktva ka Suraksha Kavach Author(s): Kalpalatashreeji Publisher: Z_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf View full book textPage 6
________________ HEREIN दर्शन दिग्दर्शन जप णमोक्कार का प्रतिदिन प्राणायामी, क्रम चले सुखद सामायिक का अविरामी। स्वाध्याय पुष्ट पाथेय बने जीवन का, हो आकर्षण गरिमामय शुभ-दर्शन का।। 'परमेष्ठी वन्दना', 'अर्हत वंदन' का क्रम संस्कार जागरण का है सफल उपक्रम हो प्रतिक्रमण पाक्षिक श्रावक की चर्या फिर खमतखामणा की प्रशस्त उपचर्या ।। श्रावक व्यापारी हो सकता है, डाक्टर हो सकता है, राज्य कर्मचारी हो सकता है, सेनापति हो सकता है .... कहने का तात्पर्य है कि किसी भी क्षेत्र में श्रावक का प्रवेश निषिद्ध नहीं है। यहां एक प्रश्न उपस्थित होता है कि बारह व्रतधारी श्रावक समुचित रूप से अपना दायित्व कैसे निभा पाएगा? क्योंकि वह व्रतों की श्रृंखला में आबद्ध है। वह जानबूझ कर हिंसा कैसे कर सकेगा? राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न सामने आने पर उसका दायित्व उसे किस निर्णय पर पहुंचाएगा? उस समय वह धर्म की रक्षा करेगा या राष्ट्र की सुरक्षा ? गुरूदेव की दृष्टि में यह मात्र भ्रांति है अथवा तथ्य को समग्र प्रकार से न समझने की परिणति है। पहली बात श्रावक गृहत्यागी नहीं, गृहस्थ है। दूसरी बात वह हिंसा करता है पर अहिंसा मानकर नहीं। चींटी भी क्यों अपने प्रमाद से मारे, अनिवार्य अगर समरागंण ललकारे। श्रावक परिवार-समाज-भूमिका में है, दुनियादारी दायित्व हाथ थामे है। इसके विपरीत श्रावक अनपेक्षित हिंसा तो क्या अपव्यय के प्रति भी सावधान रहता है। अपव्यय को वह हिंसा का ही अंग मानता है। संघ को, समाज को, देश को जब-जब धन की, जन की, शक्ति की अपेक्षा होती है, श्रावक कभी पीछे नहीं रहता । इतिहास की घटनाएं भी इसका स्वयंभू प्रमाण है - Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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