Book Title: Shramanachar Ek Anushilan
Author(s): Chandravatishreeji
Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf

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Page 5
________________ ३६४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ ०००००००००००० ०००००००००००० ANUL वा TTITITION वह सम्पूर्ण ज्ञान, दर्शन का अधिकारी होता है । जब सम्पूर्ण ज्ञानदर्शन प्राप्त होता है तब उस ज्ञान के महाप्रकाश में अखिल लोक एवं अलोक के स्वरूप को जानता है । जब अखिल लोकालोक के स्वरूप को जानता है तब वह राग-द्वेष का विजेता वीतराग एवं जिन हो जाता है तथा केवली कहलाता है । जब जिन केवली होता है तब मन, वचन, काया के योगों का निरुधन करके शैल-पर्वतवत स्थिरता को प्राप्त कर शैलेशी अवस्था को पाता है। जब शैलेशी अवस्था पाता है तब नीरज, निरंजन होकर सिद्धि को पाता है और जब सिद्धि अर्थात् योग में सफलता मिलती है तब लोक अर्थात् विश्व के मस्तक समान लोक के अत्युच्च स्थान पर स्थित होकर शाश्वत सिद्ध हो जाता है।" तात्पर्य यह है कि श्रमणत्व का जो साध्य सिद्धावस्था प्राप्त होती है, उसकी सर्वप्रथम श्रेणी एवं मूल भूमिका ज्ञान एवं दर्शन है। जैन वाङ्मय के संक्षिप्त सूत्रकार आचार्य श्री उमास्वाति ने भी अपने तत्त्वार्थ सूत्र के प्रथम सूत्र में यही सिद्धान्त रखा है कि "सम्यक दर्शन ज्ञानपूर्वक चारित्र ही मुक्ति का साधन है।"१२ वैसे ही उन्होंने वैराग्योत्पत्ति का कारण भी ज्ञान को ही माना है, जब विश्व एवं देह की अनित्यता के . स्वभाव का ज्ञान होता है तब संवेग एवं वैराग्य की उत्पत्ति सहज ही होती है । १३ ज्ञान को निश्चय, विश्वास एवं श्रद्धा को दर्शन कहते हैं । दर्शन के बिना ज्ञान मिथ्याज्ञान अर्थात् अज्ञान माना जाता है अतः श्रद्धापूर्वक ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है । दर्शन के बिना ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती और ज्ञान के बिना चारित्र नहीं तथा चारित्र के अभाव में मुक्ति नहीं होती। इसीलिए साधक के हृदय में यह लोक है, यह अलोक है, जीव है, अजीव है पुण्य है, पाप है, बन्धन है, मोक्ष है, लोक है, परलोक है-इस प्रकार जिनोक्त सिद्धान्त पर सुदृढ़ विश्वास हो तभी वह श्रमणत्व का सच्चा अधिकारी हो सकता है । ये प्रमुख गुण हैं, इसके अतिरिक्त श्रमण धर्म स्वीकार करने वाले आत्मा के अन्य बाह्य विशेषताएँ भी देखी जाती हैं । वे निम्न हैं--१. आर्य देशोत्पन्न-इसमें विशेष योग्यता होने पर अनार्य देशवासी एवं निम्न कुलोत्पन्न भी कभी-कभी दीक्षा के पात्र माने जा सकते हैं, २, शुद्धजाति कुलान्वित, ३. क्षीणप्राय अ-शुभ कर्म, ४. विशुद्ध धी, ५. विज्ञात संसार, ६. विरक्त, ७. मन्दकषाय भाक्, ८. अल्पहास्यादि, अकौतुहली ६. कृतज्ञ, १०. विनीत, ११. राजसम्मत, १२. अद्रोही, १३. सुन्दरांग भूत-पंचेन्द्रिय पूर्ण हों, कोई भी अंग भंग न हो, १४. श्रद्धावान, १५. स्थिर--स्वीकृत व्रतों को यावज्जीव निवाहे, १६. समुपसम्मन्न-पूर्ण इच्छा से अपना पूरा जीवन संयम में बिताने आया हो। इस प्रकार अनेक अन्तर बाह्य सद्गुणों से अलंकृत व्यक्ति श्रमणधर्म पालने, उसमें प्रवेश करने का योग्य पात्र माना जाता है । श्रमण के बाह्याचार श्रमण का अन्तराचार के साथ-साथ बाह्याचार भी अत्यन्त विशुद्ध होता है क्योंकि दोनों का कारण कार्य सम्बन्ध है । जहाँ-जहाँ कारण होता है वहाँ-वहाँ कार्य भी अवश्य होता है। कारण बीजवत् है तो कार्य अंकुरवत है। निमित्त और उपादान, निश्चय और व्यवहार ये दोनों सदैव साथ होने पर ही कार्य की सिद्धि होती है। कभी-कभी व्यवहार शुद्धि होने पर निश्चय नहीं भी होता है किन्तु निश्चय शुद्ध होने पर व्यवहार अवश्य ही शुद्ध होता है। काल, स्वभाव, नियति, भाग्य एवं पुरुषार्थ इन पाँच समवायों के मिलने पर ही साध्य की सिद्धि होती है। कोई यह न सोचे कि श्रमण को अन्तराचार से ही सिद्धि प्राप्त हो सकती है अत: बाह्याचार निरर्थक है, किन्तु ऐसा नहीं है । श्रमण के लिये जितना अन्तराचार, आन्तरिक सद्गुण आवश्यक है उतना ही बाह्याचार भी अत्यावश्यक है । दशवकालिक सूत्र में साधक ने जीवन के बाह्याचार के सम्बन्ध में बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रश्न किया है, वह है" कैसे चले, कैसे खड़े रहे, कैसे बैठे, कैसे सोये, कैसे भोजन करे, कैसे बोले, जिससे पाप कर्मों का बन्धन न हो ?१५ इन प्रश्नों का समाधान भी सूत्रकार ने बहुत सुन्दर दिया है, वह है--यतना अर्थात् जीवों की रक्षा करते हुए चलने, खड़े रहने, बैठने, सोने, भोजन करने एवं भाषण करने में पापकर्म का बन्धन नहीं होता और न उसका कटुफल ही होता है। यह बाह्याचार दैहिक कार्य है। श्रमण के बाह्य उपकरणों के साधन श्रमण अपने सम्पूर्ण अन्तर और बाह्य संयोग-जन्य पदार्थों का परित्याग करके साधना के लिए निकल पड़ता है। फिर भी उसके साथ शरीर तो रहता ही है। यह नहीं हो सकता कि आयु का अन्त वह स्वयं ही अनुचित साधनों से कर ले । यह तो आत्महत्या होगी, किन्तु साधना नहीं । अतः संयम के साथ-साथ वह देह का संरक्षण भी PER HEDAAR HU8. 10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,

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