Book Title: Shramanachar Ek Anushilan
Author(s): Chandravatishreeji
Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf

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Page 8
________________ Jain श्रमणाचार : एक अनुशीलन | ३६७ १८. दण्ड- - दण्डा वृद्धों का सहारा, १६. मात्रक - लघु नीति- परठने का पात्र विशेष, २०. उडक – उच्चारप्रस्रवण परठने का पात्र । इनमें से कुछ उपकरण सदैव साथ रखने योग्य स्थायी और कुछ अस्थायी आवश्यकतानुसार लेकर फिर देने योग्य हैं । जैन श्रमणों की भिक्षा विधि की होकर एक गृहस्थ से विशिष्ठ तपश्चर्या है। जैन मिक्षाचरी भिक्षा ले उसे कष्ट नहीं अपितु आनन्द भोजन से थोड़ा सा अंश वह श्रमण को । भिक्षाचरी के लिए एक पृथक समिति विश्व इतिहास में ढूंढ़ने पर भी जैन श्रमण जैसी निर्दोष अहिंसात्मक भिक्षा विधि किसी भी धर्म गुरु नहीं मिल सकती है। जैन श्रमण की भिक्षाचर्या मात्र भिक्षा ही न को मधुकरी एवं गोचरी भी कहते हैं। जिसका तात्पर्य है कि जिस होता है। गृहस्थ श्रमण के लिए भोजन नहीं बनाता किन्तु अपने लिये बने हुये प्रदान करता है । भिक्षाचरी के लिये श्रमणों के लिए सहस्रों नियम- उपनियम हैं का विधान है, उसका नाम है एषणा समिति । पाँच समिति में एषणा समिति अत्यन्त विस्तृत है । इसमें सोलह उद्गम के एवं सोलह उत्पाद के एवं दस एषणा के इस तरह ४२ दोष टाल कर आहार पानी लिया जाता है और ४७ दोष टाल से आहार करते हैं । वे हैं - १. क्षुधा वेदना सहन न होने पर, २. वैयासमय जीवरक्षा करने के लिये नेत्ररक्षा आवश्यक है, ४. संयम पालने रक्षार्थ और ६. धर्म चिन्तनार्थं । इसी तरह छः कारण उपस्थित हों तो पर, २. संयम त्याग का उपसर्ग होने पर, ३. ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए, लिए एवं ६. शरीर त्याग के अवसर पर आहार का त्याग किया जाता कर आहार को भोगा जाता है । छह कारणों वृत्य के लिये, ३. इर्याशोधनाथ अर्थात् चलते के लिए, ५. प्राणरक्षा के लिए एवं जीवन आहार त्याग करते हैं-- १. रोगादि बढ़ने ४. प्राणियों की रक्षानिमित्त ५ तपस्या के है । तात्पर्य यह है कि आहार का ग्रहण भी संयम की रक्षा एवं वृद्धि के लिए है और आहार का त्याग भी संयम रक्षा के उद्देश्य से किया जाता है । श्रमणों की दिनरात्रि की चर्या - नित्याचरण श्रमण का उद्देश्य है सिद्धत्व और उसका साधन है स्वाध्याय और ध्यान । श्रमण स्वाध्याय और ध्यान के द्वारा सिद्धपद को पा सकता है । अतः वह दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करता है । दूसरे प्रहर में ध्यान करता है, तृतीय प्रहर में मिक्षाचर्या करता है और चतुर्थ प्रहर में पुनः स्वाध्याय करता है । स्वाध्याय और ध्यान यही श्रमण के दो प्रमुख कार्य हैं । भिक्षाचरी एवं आहारग्रहण करने का उद्देश्य भी स्वाध्याय एवं ध्यान है | स्वाध्याय के द्वारा वह जीवादि तत्त्वों का ज्ञान करता है और ध्यान के द्वारा जीव स्वभाव दशा में स्थिर रहना सीखता है । आचार्य उमास्वाति की व्याख्या से "चित्त की समस्त बाह्यवृत्तियों की चिन्ता का निरुधन करके आत्मा में एकाग्र होकर स्थिर हो जाना ध्यान है । आत्मा में लीनता, आत्मा में एकरूपता होने पर आत्मा निर्विकल्प ध्यान तक पहुँचता है | अध्यात्म योगी सन्त श्री आनन्दघनजी ने ध्यान के विषय में बहुत ही सुन्दर व्याख्या की है, वह यह है सारे संसारी जीव इन्द्रियादि बाह्य विषयों में रमते हैं किन्तु मुनिगण एक मात्र अपनी आत्मा में रमते हैं और जो आत्मा में रमते हैं वे निष्कामी होते हैं। श्रमण गण आर्तध्यान और रौद्र ध्यान को त्याज्य समझते हैं और धर्मध्यान, शुक्ल ध्यान को ध्येय समझते हैं । जैनागमों में धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान की बहुत विस्तृत व्याख्याएँ हैं । जो श्रमण धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान का निरन्तर अभ्यास करते हैं उन्हें दिव्य आत्मज्ञान अर्थात् क्रमशः अवधि, मनपर्यव एवं केवल ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। जब तक साध्य सिद्ध न हो तब तक ध्यान की साधना निरन्तर चलती रहती है । 1. जैसे एक तैराक जब तक तिरना पूरा न आये तब तक अभ्यास करता ही रहता है । वैसे चित्रकला की सफलता के लिए चित्रकार, विज्ञान के लिए वैज्ञानिक, भाषा ज्ञान के लिये भाषा का विद्यार्थी चिकित्सा के लिए वैद्य, इत्यादि निरन्तर श्रम करते हैं, वैसे ही श्रमण मोह पर विजय करने के लिए निरन्तर ध्यान साधना करता ही रहता है । तभी सफलता की संभावना रहती है। श्रमण की रात्रिचर्या में भी स्वाध्याय और ध्यान प्रमुख कार्य हैं। जैसे - रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय प्रहर में ध्यान, तृतीय प्रहर में निद्रा और चतुर्थ प्रहर में पुनः स्वाध्याय करते हैं । निद्रा लेना श्रमण का उद्देश्य नहीं है किन्तु ध्यान की निर्विघ्नता के लिए वह विश्राम करता है । जब ध्याता, ध्यान HOM ✩ Wh 000000000000 ooooooooo000 40000CFFED • www.jainelibrary.org

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