Book Title: Shramanachar Ek Anushilan Author(s): Chandravatishreeji Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf View full book textPage 4
________________ - श्रमणाचार : एक अनुशीलन | ३६३ 000000000000 ०००००००००००० श्रमण के २८ मूलगुण मानती है। उनके नियमों में कुछ भिन्नता है । वह इस प्रकार है-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ये ५ महाव्रत एवं पांच इन्द्रियों का निग्रह, पंच समिति, ६ आवश्यक, स्नान त्याग, शयन भूमि का शोधन, वस्त्रत्याग, केशलंचन, एक बार भोजन, दन्तधावन त्याग, खड़े-खड़े भोजन करना। इन गुणों में ५ महाव्रत एवं ५ इन्द्रिय निग्रह हैं । दस गुण श्वेताम्बरों से मिलते हैं । शेष १८ गुण बाह्याचार से सम्बन्धित हैं । सत्रह प्रकार का नियम जैन श्रमण १७ प्रकार से संयम साधता है, वह इस प्रकार है-पृथ्वीकाय संयम, अपकाय संयम, तेजस (अग्नि) काय संयम, वायुकाय संयम, वनस्पतिकाय संयम, बेइन्द्रिय संयम, त्रीन्द्रिय संयम, चतुरिन्द्रिय संयम, पंचेन्द्रिय संयम, अजीवकाय संयम, प्रेक्षा संयम-सोते, बैठते समय, वस्त्रादि उपकरण लेते रखते हुए अच्छी तरह से देखना, उपेक्षा संयम-सांसारिक कार्यों की उपेक्षा अपहृत्य संयम-श्रमण-धर्म का अध्ययन करना व कराना तथा आहार, शरीर, उपाधि, मलमूत्रादि परिष्ठापन करते हुए जीवरक्षा करना । प्रमार्जना संयम-जिन वस्त्र, पात्र, मकान, शरीर का उपयोग करते हैं उन्हें प्रमार्जनी, गुच्छक विशेष से पूजना । मन संयम-मन संक्लेश कषायरहित प्रसन्न रखना। वचन संयम-हिंसाकारी असत्य, मिश्र, सिद्धान्त विरुद्ध वचन न बोलना, काय संयम-सोने, बैठने, खाने, पीने, चलने आदि शारीरिक क्रिया के समय जीवरक्षा का विवेक रखना। यदि सूक्ष दृष्टि से देखा जाय तो संयम एक ही प्रकार का है और वह है असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति ।१० असंयम क्या है ? इसकी व्याख्या अत्यन्त विस्तृत है। सूत्रकार कहते हैं कि-राग व द्वेष जनित वृत्ति ही असंयम है। इससे असंयम के दो भेद हुए, उन पर विजय करना संयम है। इस तरह एक से लगाकर तेतीस बोल तक असंयम से संयम की व्याख्या की गई है-जैसे तीन दण्ड हैं-मन, वचन, काया । तीन शल्य हैं-माया शल्य, निदान शल्य, मिथ्यादर्शन शल्य । तीन उपसर्ग हैं-देव, मनुष्य, तिर्यंच कृत । ऐसे चार कषाय, चार संज्ञा, चार ध्यान में से दो ध्यान हेय हैं। ५ इन्द्रियां ५ समिति, ५ क्रिया, लेश्याषटक, कायाषटक, सप्तभय, सप्तप्रतिमा, अष्ट मदस्थान, ब्रह्मचर्य रक्षा की ६ वाडे, इस यतिधर्म, एकदश उपासक प्रतिमा, द्वादश भिक्षुप्रतिमा, त्रयोदश क्रियास्थान, चतुर्दश भूतग्राम, पंचदश परमाधार्मिक, षोडष गाथा, सप्तदश असंयम, उन्नीस ज्ञात अध्याय, बीस असमाधि स्थान, इक्कीस सबल दोष, २२ परीषह, २३ सूत्रकृत, २४ देवकृत, २५ भावना, २६ दशाश्रुत स्कन्ध, २७ अनगारगुण, २८ आचारकल्प, २६ पापसूत्र, ३० महामोह, ३१ सिद्धातिशय, ३२ योग संग्रह, ३३ आशातना । इस प्रकार अनेकों आन्तरिक विकृतियाँ हैं, उन पर विजय करके आत्मा को पूर्ण समाधिस्थ, प्रसन्न एवं स्वस्थावस्था में ले जाने का पुरुषार्थ करने वाला श्रमण पद से अलंकृत हो सकता है । श्रमणत्त्व एक महौषधी है जो आत्मा की अनेक आन्तरिक व्याधियों का उपशमन करके आत्मा को स्वस्थ व प्रसन्न बना देती है। श्रमणत्व का अधिकारी श्रमण साधना के केन्द्र में प्रविष्ट होने वाले को सर्वप्रथम सम्यक्ज्ञान एवं सम्यक्दर्शन से सम्पन्न होना चाहिये । जो जीव एवं अजीव का स्वरूप नहीं जानता है वह संयम का अधिकारी कैसे हो सकता है । जो जीव और अजीव का ज्ञाता है वही संयम का सच्चा अधिकारी है। जीवादि तत्त्वों का सम्य ज्ञान होने पर ही जीवों की दयारक्षा रूप संयम में स्थित रह सकता है। दशवकालिक सूत्र में संयम का क्रम ज्ञान से आरम्म करके श्रमणत्व के साध्य सिद्धत्त्व पर्यन्त पहुँचाया गया है। यथा--"जो जीवाजीव का ज्ञाता है वह जीवों की रक्षा व दयारूप संयम का ज्ञाता है। जो संयम को जानता है वह जीवों की बहुविध दुर्गति सद्गति को जानेगा। जो जीवों की गति का ज्ञाता है वह पुण्य-पाप भी जानेगा, क्योंकि पाप से जीव की दुर्गति व पुण्य से सुगति होती है। जो पुण्य-पाप का ज्ञाता है तो बन्ध-मोक्ष भी समझेगा और बंध-मोक्ष समझने पर देव, मनुष्य सम्बन्धी भोगों से निर्वेद अर्थात् अनासक्ति या वैराग्य भाव करेगा और जब विरक्त साधक बाहर-भीतर के संयोगों से विरक्त होगा तब संयोग से मुक्तात्मा मुंडित होकर उत्कृष्ट संवर-आत्मरमण को स्पर्श करेगा। संवर होने पर अबोध-अज्ञान कृत कल्मष कर्मरज को दूर करता है। जो अज्ञानकृत कलुषित कर्म रज को दूर कर देता है मा R . .. A ..." .:58zt-/- - www.jamelibrary.org -.MARWAdi For Private & Personal use only Jain Education InternationalPage Navigation
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