Book Title: Shraman ki Pramukh Visheshtaye
Author(s): Vijayraj Acharya
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 7
________________ 198 जिनवाणी 10 जनवरी 2011 असमाधि का समाधान बनता है। उत्तराध्ययन में इसी सत्य की पुष्टि करते हुए कहा गया अज्जेवाहं न लब्धामो, अवि लाभे सुए सिया। जो एवं पडिसंचिक्खे, अलाभो तं न तज्जए।। “आज नहीं मिला तो क्या हुआ? कल मिल जायेगा" जो यह विचार कर लेता है, वह कभी अलाभ के कारण अशांत नहीं होता। सदैव इस सकारात्मक सोच के साथ जीने का अभ्यासी श्रमण आचारांग में कहे अनुसार दुःख के क्षणों में घबराता नहीं। “सहियो दुक्खमत्ताए पुट्ठो नो झंझाए” अर्थात् सत्य की साधना को समर्पित श्रमण सब ओर से दुःखों में घिरा होकर भी घबराता नहीं है, विचलित नहीं होता है। सदैव अपनी संयम-साधना में धन्यता का अनुभव करता है। धन्यता-अनुभूति संतुष्टि का पथ है। इसके लिए दशवैकालिक सूत्र में कहा है- “संतोसपाहन्नरए स पुज्जो' जो संतोष के पथ पर चलता है और संतोष भावों में रमण करता है, वही पूज्य श्रमण है। हे श्रमण! इस अर्थ में तू सचमुच में महान है। श्रमण का सतरहवाँ लक्षण है- “खंतिखमे" समर्थ होते हुए भी श्रमण क्षमाशील होते हैं। सच्ची क्षमा आन्तरिक शान्ति के बिना नहीं हो सकती। श्रमण शान्ति के देवता होते हैं। उनकी भावक्षमा, भाषा-क्षमा और भंगिमा-क्षमा नदी के प्रवाह की तरह बहती है। आचारांग में कहा है- “भूएहिं न विरुज्झेज्जा" श्रमण किसी भी जीव के साथ वैर-विरोध न करे। वैर से वैर, विरोध से विरोध इस तरह बढ़ते हैं, जैसे आग से आग बढ़ती है। आग तब बुझती है जब उसका खाना उसे नहीं मिलता है, अथवा उसके प्रतिपक्षी तत्त्व पानी-रेत आदि उसे प्राप्त होते हैं, तो वह बुझ जाती है। जिस श्रमण पुष्प से क्षमा की महक नहीं आती वह श्रमण वेश में कागज का फूल होता है। क्षमा से ही श्रमण श्रमणत्व की गरिमा से खिलता है। हे श्रमण! इस अर्थ में तू सचमुच में महान है। श्रमण का अठारहवाँ लक्षण है-"जिइंदिए" श्रमण इन्द्रियों का विजेता होता है। बहिर्मुखी इन्द्रियाँ संसार की ओर भागती हैं और "खाणी अणत्थाण उ कामभोगा” ये कामभोग अनन्त दुःखों की खान हैं, यह उसे समझ में नहीं आता। अगर इन्द्रिय-निग्रह न हो तो मनोनिग्रह नहीं हो सकता और मनो-निग्रह के बिना साधना में स्थिरता प्राप्त नहीं होती। आगम कहते हैं-“एगप्पा अजिए सत्तु" स्वयं की अविजित-असंयत आत्मा ही स्वयं का एक शत्रु है। बहिरात्मा को अन्तरात्मा की ओर अभिमुख करने के लिए इंद्रिय संयम आवश्यक है, दशवैकालिक नियुक्ति गाथा 285 में कहा है सहेसु अ रुवेसु अ गंधेसु रसेसु तह य फासेसु । न वि रज्जई न वि दुस्सई, एसा खलु इंदिय अप्पणिही। शब्द, रूप, गंध और स्पर्श में जिसका चित्त न तो अनुरक्त होता है और न द्वेष करता है; उसी का इन्द्रिय निग्रह प्रशस्त होता है। श्रमण इन्द्रिय विषयों पर संकल्पपूर्वक नियमन करता है तथा परिणामदर्शी बनकर जीता है। आचारांग में कहा गया है-“आयंकदंसी न करेइ पावं' जो इंद्रिय-विषयों के आसेवन से उत्पन्न होने वाले Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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