Book Title: Shraman ki Pramukh Visheshtaye
Author(s): Vijayraj Acharya
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf
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________________ 201 | 10 जनवरी 2011 जिनवाणी दसवाँ यतिधर्म है- बंभचेरवासे! श्रमण ब्रह्मचर्य से पवित्र होता है। इस प्रकार के यतिधर्मों से श्रमण सुसम्पन्न होता है। हे श्रमण! इस अर्थ में तू सचमुच में महान है। श्रमण का चौबीसवाँ लक्षण है- 'दंते' श्रमण क्रोधादि कषायों का तथा बहिरात्मा का दमन करने वाला होता है। उत्तराध्ययन में कहा गया है वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य। माहं परेहिं दम्मंतो, बंधणेहिं, वहेहिं य॥ वध और बंधनों से दूसरे मेरा दमन करें, इससे तो अच्छा यही है कि मैं स्वयं ही संयम और तप के द्वारा अपना दमन कर लूँ। श्रमण इसी प्रकार का चिन्तन करता है। और भी अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुहमो / अप्पा दंतो सुही होई, अस्सिं लोट परत्थ य॥ श्रमण सोचता है कि मुझे अपने आप पर नियंत्रण रखना चाहिए, क्योंकि यही सबसे कठिन कार्य है। जो अपने पर नियंत्रण रखता है, वह इस लोक तथा परलोक दोनों में सुखी होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org