Book Title: Shraman ki Pramukh Visheshtaye
Author(s): Vijayraj Acharya
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 1
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 192 श्रमण की प्रमुख विशेषताएँ आचार्य श्री विजयराज जी म.सा. आगम में वर्णित श्रमण की विभिन्न विशेषताओं को आचार्य श्री ने इस आलेख में 24 लक्षणों के रूप में सुन्दर रीति से प्रस्तुत किया है। एक प्रकार से श्रमण के सम्बन्ध में आगमों का निचोड़ इस आलेख में आ गया है। -सम्पादक जीवन के दो रूप हैं- एक बाह्य तथा दूसरा आन्तरिक । बाह्य रूप पहचाना जाता है, नाम, रूप-रंग, आकार-प्रकार, वेशभूषा, अलंकरण इत्यादि से । आन्तरिक रूप पहचाना जाता है, व्यक्तित्व से । व्यक्तित्व का निर्माण शुभ- विचार, आचार और व्यवहार से होता है। श्रमण जीवन का आन्तरिक रूप उसके दिव्य गुणों से पहचाना जाता है । "लोगे लिंग पओयणं” यह लिंग अथवा वेशभूषा लोक प्रतीति के लिए होती है। आम व्यक्ति श्रमण की वेशभूषा से श्रमण को पहचानता है। पहली पहचान व्यक्ति का वेश-परिवेश है तो आगे की पहचान उसके उदात्त गुण हैं। श्रमण कौन है ? इस प्रश्न का उत्तर हमें प्रश्नव्याकरण सूत्र से मिलता है "समे य जे सव्वपाणभूएस से हु समणे" जो समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखता है, वस्तुतः वही श्रमण है। समत्व और श्रमणत्व दूध और मलाई की तरह परस्पर अनुबन्धित हैं । हम यहाँ श्रमण के चौबीस लक्षणों पर विचार करेंगे। श्रमण का पहला लक्षण है- 'अणारम्भो ।' आरम्भ यानी सभी प्रकार की हिंसा से मुक्त । श्रमणत्व का सम्बन्ध समत्व से है और समत्वशील श्रमण किसी भी तरह की हिंसा- पापारम्भ नहीं कर सकता, करा नहीं सकता और करते हुए का अनुमोदन नहीं कर सकता। उसका आदर्श होता है- "वयं च वित्तिं लब्भामो ण य कोइ उवहम्मइ ।" हम श्रमण जीवनोपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति इस प्रकार करेंगे कि जिससे किसी को भी कष्ट न हो, क्योंकि सुख का भोगी दुःख का भागीदार होता है । अपने सुख के लिए अगर हमने किसी को कष्ट पहुँचाया तो यह उसको कष्ट नहीं, स्वयं को कष्ट पहुँचाने के समान है। आचारांग सूत्र में प्रभु फरमाते हैं सिनाम तं चैव जं हंतव्वं त्ति मण्णसि । सिनाम तं चैव जं अज्जावेयव्वं त्ति मण्णसि । तुमं सिनाम तं चैव जं परियावेयव्वं त्ति मण्णसि । जिसे तू मारना, शासित करना और परिताप देना चाहता है, वह और कोई नहीं, तू ही है, क्योंकि स्वरूप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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