Book Title: Shraman evam Vaidik Dhara ka Vikas evam Parasparik Prabhav Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 2
________________ पतकधम ५९२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ प्रकार प्रवर्तक धर्म में दो शाखाओं का विकास हुआ-१. श्रद्धाप्रधान भक्ति- प्रवर्तक धर्म में प्रारम्भ में जैविक मूल्यों की प्रधानता रही, वेदों मार्ग और २. यज्ञ-याग प्रधान कर्म-मार्ग। में जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्धित प्रार्थनाओं के स्वर दूसरी ओर निष्पाप और स्वतन्त्र जीवन जीने की उमंग में अधिक मुखर हुए हैं। उदाहरणार्थ-हम सौ वर्ष जीवें, हमारी सन्तान बलिष्ट निवर्तक धर्म ने निर्वाण या मोक्ष अर्थात् वासनाओं एवं लौकिक एषणाओं होवें, हमारी गायें अधिक दूध देवें, वनस्पति प्रचुर मात्रा में हों आदि। से पूर्ण मुक्ति को मानव-जीवन का लक्ष्य माना और इस हेतु ज्ञान और इसके विपरीत निवर्तक धर्म ने जैविक मूल्यों के प्रति एक निषेधात्मक विराग को प्रधानता दी, किन्तु ज्ञान और विराग का यह जीवन सामाजिक रुख अपनाया, उन्होंने सांसारिक जीवन की दुःखयमता का राग अलापा। एवं पारिवारिक व्यस्तताओं के मध्य सम्भव नहीं था। अत: निवर्तक धर्म उनकी दृष्टि में शरीर आत्मा का बन्धन है और संसार दुःखों का सागर। मानव को जीवन के कर्म-क्षेत्र से कहीं दूर निर्जन वनखण्डों और गिरि- उन्होंने संसार और शरीर दोनों से ही मुक्ति को जीवन-लक्ष्य माना। उनकी कन्दराओं में ले गया। उसमें जहाँ एक ओर दैहिक मूल्यों एवं वासनाओं दृष्टि में दैहिक आवश्यकताओं का निषेध, अनासक्ति, विराग और आत्मके निषेध पर बल दिया गया जिससे वैसग्यमूलक तप-मार्ग का विकास सन्तोष ही सर्वोच्च जीवन-मूल्य हैं। हुआ, वहीं दूसरी ओर उस ऐकान्तिक जीवन में चिन्तन और विमर्श के एक ओर जैविक मूल्यों की प्रधानता का परिणाम यह हुआ कि द्वार खुले, जिज्ञासा का विकास हुआ, जिससे चिन्तनप्रधान ज्ञान-मार्ग प्रवर्तक धर्म में जीवन के प्रति एक विधायक दृष्टि का निर्माण हुआ तथा का उद्भव हुआ। इस प्रकार निवर्तक धर्म भी दो शाखाओं में विभक्त हो जीवन को सर्वतोभावेन वांछनीय और रक्षणीय माना गया, तो दूसरी ओर गया-१. ज्ञान-मार्ग और २. तप-मार्ग। जैविक मूल्यों के निषेध से जीवन के प्रति एक ऐसी निषेधात्मक दृष्टि मानव प्रकृति के दैहिक और चैतसिक पक्षों के आधार पर का विकास हुआ जिसमें शारीरिक माँगों का ठुकराना ही जीवन-लक्ष्य मान प्रवर्तक और निवर्तक धर्मों के विकास की इस प्रक्रिया को निम्न सारिणी लिया गया और देह-दण्डन ही तप-त्याग और आध्यात्मिकता के प्रतीक के माध्यम से अधिक स्पष्ट किया जा सकता है बन गए। प्रवर्तक धर्म जैविक मूल्यों पर बल देते हैं अत: स्वाभाविक रूप से वे समाजगामी बने, क्योंकि दैहिक आवश्यकता की जिज्ञासा जिसका निवर्तक एवं प्रवर्तक धर्मों के दार्शनिक एवं सांस्कृतिक प्रदेय एक अंग काम भी है, की पूर्ण सन्तुष्टि तो समाज-जीवन में ही सम्भव प्रवर्तक और निवर्तक धर्मों का यह विकास भिन्न-भिन्न थी, किन्तु विराग और त्याग पर अधिक बल देने के कारण निवर्तक धर्म मनोवैज्ञानिक आधारों पर हुआ था, अत: यह स्वाभाविक था कि उनके समाज-विमुख और वैयक्तिक बन गए। यद्यपि दैहिक मूल्यों की उपलब्धि दार्शनिक एवं सांस्कृतिक प्रदेय भिन्न-भिन्न हों। प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मों हेतु कर्म आवश्यक थे किन्तु जब मनुष्य ने यह देखा कि दैहिक के इन प्रदेयों और उनके आधार पर उनमें रही हुई पारस्परिक भिन्नता आवश्यताओं की सन्तुष्टि के लिये उसके वैयक्तिक प्रयासों के बावजूद को अगली सारणी से स्पष्टतया समझा जा सकता है उनकी पूर्ति या अपूर्ति किन्ही अन्य शक्तियों पर निर्भर है, तो वह देववादी मनुष्य और ईश्वरवादी बन गया। विश्व-व्यवस्था और प्राकृतिक शक्तियों के नियन्त्रक तत्त्व के रूप में उसने विभिन्न देवों और फिर ईश्वर की कल्पना चेतना की और उनकी कृपा की आकांक्षा करने लगा। इसके विपरीत निवर्तक धर्म व्यवहार में नैष्कर्म्यता के समर्थक होते हुए भी कर्म-सिद्धान्त के प्रति वासना आस्था के कारण यह मानने लगे कि व्यक्ति का बन्धन और मुक्ति स्वयं विराग (त्याग) उसके कारण है, अत: निवर्तक धर्म पुरुषार्थवाद और वैयक्तिक प्रयासों पर आस्था रखने लगे। अनीश्वरवाद, पुरुषार्थवाद और कर्मसिद्धान्त उसके अभ्युदय (प्रेय) निःश्रेयस् प्रमुख तत्त्व बन गए। साधना के क्षेत्र में जहाँ धर्म में अलौकिक दैवीय स्वर्ग मोक्ष (निर्वाण) शक्तियों की प्रसन्नता के निमित्त कर्मकाण्ड और बाह्य-विधानों (यज्ञ-याग) का विकास हुआ, वहीं निवर्तक धर्मों ने चित्त-शुद्धि और सदाचार पर सन्यास अधिक बल दिया तथा किन्हीं दैवीय शक्तियों के निमित्त कर्म-काण्ड के प्रवृत्ति निवृत्ति सम्पादन को अनावश्यक माना। सांस्कृतिक प्रदेयों की दृष्टि से प्रवर्तक धर्म वर्ण-व्यवस्था, प्रर्वतक धर्म निवर्तक धर्म ब्राह्मण संस्था (पुरोहित वर्ग) के प्रमुख समर्थक रहे। ब्राह्मण वर्ग मनुष्य अलौकिक शक्तियों की उपासना आत्मोपलब्धि और ईश्वर के बीच एक मध्यस्थ का कार्य करने लगा तथा उसने अपनी आजीविका को सुरक्षित बनाए रखने के लिये एक ओर समाज-जीवन में अपने वर्चस्व को स्थापित रखना चाहा, तो दूसरी ओर धर्म को समर्पणमूलक यज्ञमुलक चिन्तन प्रधान देहदण्डन मलक कर्मकाण्ड और जटिल विधि-विधानों की औपचारिकता में उलझा दिया। भक्ति-मार्ग कर्म-मार्ग ज्ञान-मार्ग तप-मार्ग विवेक भोग कर्म चिन्तन प्रभात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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