Book Title: Shraman evam Vaidik Dhara ka Vikas evam Parasparik Prabhav
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव भारतीय संस्कृति एक समन्वित संस्कृति है। इसकी संरचना में चैतसिक स्तर पर स्वतन्त्र है, मुक्त है। मनोविज्ञान की भाषा में जहाँ एक वैदिकधारा और श्रमणधारा का महत्त्वपूर्ण अवदान है। वैदिकधारा मूलतः ओर वह वासनात्मक अहं (ID) से अनुशासित है, तो दूसरी ओर प्रवृत्तिप्रधान और श्रमणधारा निवृत्तिप्रधान रही है। वैदिकधारा का आदर्शात्मा (Super Ego) से प्रभावित भी है। वासनात्मक अहं उसकी प्रतिनिधित्व वर्तमान में हिन्दूधर्म करता है जबकि श्रमणधारा का शारीरिक माँगों की अभिव्यक्ति का प्रयास है तो आदर्शात्मा उसका प्रतिनिधित्व जैन और बौद्ध धर्म करते हैं। किन्तु यह समझना भ्रान्तिपूर्ण आध्यात्मिक स्वभाव है, उसक निज स्वरूप है जो निर्द्वन्द्व एवं निराकुल होगा कि वर्तमान हिन्दूधर्म अपने शुद्ध रूप में मात्र वैदिक परम्परा का चैतसिक समत्व की अपेक्षा करता है। उसके लिये इन दोनों में से किसी अनुयायी है। आज उसने श्रमणधारा के अनेक तत्त्वों को अपने में समाविष्ट की भी पूर्ण अपेक्षा सम्भव है। उसके जीवन की सफलता इनके बीच के कर लिया है। अत: वर्तमान हिन्दूधर्म वैदिकधारा और श्रमणधारा का एक सन्तुलन बनाने में निहित है। उसके वर्तमान अस्तित्व के ये दो छोर हैं। समन्वित रूप है और उसमें इन दोनों परम्पराओं के तत्त्व सन्निहित हैं। उसकी जीवन-धारा इन दोनों का स्पर्श करते हुए इनके बीच बहती है। इसी प्रकार यह कहना भी उचित नहीं होगा कि जैन धर्म और बौद्धधर्म मूलतः श्रमण-परम्परा के धर्म होते हुए भी वैदिकधारा या हिन्दूधर्म से प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मों का मनोवैज्ञानिक कारण पूर्णत: अप्रभावित रहे हैं। इन दोनों धर्मों ने भी वैदिक धारा के विकसित मानव-जीवन में शारीरिक विकास वासना को और चैतसिक धर्म से कालक्रम में बहुत कुछ ग्रहण किया है। विकास विवेक को जन्म देता है। प्रदीप्त-वासना अपनी सन्तुष्टि के लिये यह सत्य है कि हिन्दूधर्म प्रवृत्तिप्रधान रहा है। उसमें भी यज्ञ-याग 'भोग' की अपेक्षा रखती है तो विशुद्ध-विवेक अपने अस्तित्व के लिये और कर्मकाण्ड की प्रधानता है, फिर भी उसमें संन्यास, मोक्ष और वैराग्य 'संयम' या विराग की अपेक्षा करता है। क्योंकि सराग-विवेक सही निर्णय का अभाव नहीं है। अध्यात्म, संन्यास और वैराग्य के तत्त्वों को उसने श्रमण- देने में अक्षम होता है वासना भोगों पर जीती है और विवेक विराग पर। परम्परा से न केवल ग्रहण किया है अपितु उन्हें आत्मसात भी कर लिया यहीं दो अलग-अलग जीवनदृष्टियों का निर्माण होता है। एक का आधार है। यद्यपि वेदकाल के प्रारम्भ में ये तत्त्व उसमें पूर्णत: अनुपस्थित थे, किन्तु वासना और भोग होते हैं तो दूसरी का आधार विवेक और विराग। श्रमण औपनिषदिक काल में उसमें श्रमण-परपरा के इन अनेक तत्त्वों को मान्यता परम्परा में इनमें से पहली को मिथ्या-दृष्टि और दूसरी को सम्यक्-दृष्टि प्राप्त हो चुकी थी। ईशावास्योपनिषद् सर्वप्रथम वैदिकधारा और श्रमणधारा के नाम से अभिहित किया गया है। उपनिषद् में इन्हें क्रमश: प्रेय और के समन्वय का प्रयास है। आज हिन्दूधर्म में संन्यास, वैराग्य, तप-त्याग, श्रेय कहा गया है। कठोपनिषद् में ऋषि कहता है कि प्रेय और श्रेय दोनों ध्यान और मोक्ष की जो अवधारणाएँ विकसित हुई हैं, वे सभी इस तथ्य ही मनुष्य के सामने उपस्थित होते हैं। उसमें से मन्द-बुद्धि शारीरिक योगका प्रमाण हैं कि वर्तमान हिन्दूधर्म ने भारत की श्रमणधारा से बहुत कुछ क्षेम अर्थात् प्रेय को और विवेकी पुरुष श्रेय को चुनता है। वासना की ग्रहण किया है। उपनिषद् वैदिक और श्रमणधारा के समन्वयस्थल हैं-उनमें तुष्टि के लिये भोग और भोगों के साधनों की उपलब्धि के लिये कर्म वैदिक हिन्दू धर्म एक नया स्वरूप लेता प्रतीत होता है। अपेक्षित है। इसी भोगप्रधान जीवन-दृष्टि से कर्म-निष्ठा का विकास हुआ इसी प्रकार श्रमणधारा ने भी चाहे-अनचाहे वैदिकधारा से बहुत है। दूसरी ओर विवेक के लिये विराग (संयम) और विराग के लिये कुछ ग्रहण किया है। श्रमणधारा में कर्मकाण्ड और पूजा-पद्धति तो वैदिकधारा आध्यात्मिक मूल्य-बोध (शरीर के ऊपर आत्मा की प्रधानता का बोध) से आयी ही है, अपितु अनेक हिन्दू देवी-देवता भी श्रमण-परम्परा में मान्य अपेक्षित है। इसी आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि से तप मार्ग का विकास हुआ। कर लिये गए हैं। भारतीय संस्कृति की ये विभिन्न धाराएँ किस रूप में एक- इनमें पहली धारा से प्रवर्तक धर्म का और दूसरी से निवर्तक दूसरे से समन्वित हुई हैं, इसकी चर्चा करने के पूर्व हमें यह देखना होगा धर्म का उद्भव हुआ। प्रवर्तक धर्म का लक्ष्य भोग ही रहा, अत: उसने कि इन दोनों धाराओं का स्वतन्त्र विकास किन मनोवैज्ञानिक और पारिस्थितिक अपनी साधना का लक्ष्य-सुविधाओं की उपलब्धि को ही बनाया। जहाँ कारणों से हुआ है, तथा क्यों और कैसे इनका परस्पर समन्वय हुआ? ऐहिक जीवन में उसने धन-धान्य, पुत्र, सम्पत्ति आदि की कामना की, प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मों का उद्भव वहीं पारलौकिक जीवन में स्वर्ग (भौतिक सुख-सुविधाओं की उच्चतम मानव-अस्तित्व द्वि-आयामी एवं विरोधाभास पूर्ण है। यह अवस्था) की प्राप्ति को ही मानव-जीवन का चरम लक्ष्य घोषित किया। स्वभावत: परस्पर विरोधी दो भिन्न केन्द्रों पर स्थित है। वह न केवल शरीर पुनः आनुभविक जीवन में जब मनुष्य ने यह देखा कि अलौकिक एवं है और न केवल चेतना, अपितु दोनों की एक विलक्षण एकता है। यही प्राकृतिक शक्तियाँ उसके सुख-सुविधाओं की उपलब्धि के प्रयासों को कारण है कि उसे दो भिन्न स्तरों पर जीवन जीना होता है। शारीरिक स्तर सफल या विफल बना सकती हैं एवं उसकी सुख-सुविधाएँ उसके अपने पर वह वासनाओं से चालित है और वहाँ उन पर यान्त्रिक नियमों का पुरुषार्थ पर नहीं, अपितु इन शक्तियों की कृपा पर निर्भर हैं, तो वह इन्हें आधिपत्य है किन्तु चैतसिक स्तर पर वह विवेक से शासित है, यहाँ उसमें प्रसन्न करने के लिये एक ओर इनकी स्तुति और प्रार्थना करने लगा तो संकल्प-स्वातन्त्र्य है। शारीरिक स्तर पर वह बद्ध है, परतन्त्र है किन्तु दूसरी ओर उन्हें बलि और यज्ञों के माध्यम से सन्तुष्ट करने लगा। इस Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतकधम ५९२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ प्रकार प्रवर्तक धर्म में दो शाखाओं का विकास हुआ-१. श्रद्धाप्रधान भक्ति- प्रवर्तक धर्म में प्रारम्भ में जैविक मूल्यों की प्रधानता रही, वेदों मार्ग और २. यज्ञ-याग प्रधान कर्म-मार्ग। में जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्धित प्रार्थनाओं के स्वर दूसरी ओर निष्पाप और स्वतन्त्र जीवन जीने की उमंग में अधिक मुखर हुए हैं। उदाहरणार्थ-हम सौ वर्ष जीवें, हमारी सन्तान बलिष्ट निवर्तक धर्म ने निर्वाण या मोक्ष अर्थात् वासनाओं एवं लौकिक एषणाओं होवें, हमारी गायें अधिक दूध देवें, वनस्पति प्रचुर मात्रा में हों आदि। से पूर्ण मुक्ति को मानव-जीवन का लक्ष्य माना और इस हेतु ज्ञान और इसके विपरीत निवर्तक धर्म ने जैविक मूल्यों के प्रति एक निषेधात्मक विराग को प्रधानता दी, किन्तु ज्ञान और विराग का यह जीवन सामाजिक रुख अपनाया, उन्होंने सांसारिक जीवन की दुःखयमता का राग अलापा। एवं पारिवारिक व्यस्तताओं के मध्य सम्भव नहीं था। अत: निवर्तक धर्म उनकी दृष्टि में शरीर आत्मा का बन्धन है और संसार दुःखों का सागर। मानव को जीवन के कर्म-क्षेत्र से कहीं दूर निर्जन वनखण्डों और गिरि- उन्होंने संसार और शरीर दोनों से ही मुक्ति को जीवन-लक्ष्य माना। उनकी कन्दराओं में ले गया। उसमें जहाँ एक ओर दैहिक मूल्यों एवं वासनाओं दृष्टि में दैहिक आवश्यकताओं का निषेध, अनासक्ति, विराग और आत्मके निषेध पर बल दिया गया जिससे वैसग्यमूलक तप-मार्ग का विकास सन्तोष ही सर्वोच्च जीवन-मूल्य हैं। हुआ, वहीं दूसरी ओर उस ऐकान्तिक जीवन में चिन्तन और विमर्श के एक ओर जैविक मूल्यों की प्रधानता का परिणाम यह हुआ कि द्वार खुले, जिज्ञासा का विकास हुआ, जिससे चिन्तनप्रधान ज्ञान-मार्ग प्रवर्तक धर्म में जीवन के प्रति एक विधायक दृष्टि का निर्माण हुआ तथा का उद्भव हुआ। इस प्रकार निवर्तक धर्म भी दो शाखाओं में विभक्त हो जीवन को सर्वतोभावेन वांछनीय और रक्षणीय माना गया, तो दूसरी ओर गया-१. ज्ञान-मार्ग और २. तप-मार्ग। जैविक मूल्यों के निषेध से जीवन के प्रति एक ऐसी निषेधात्मक दृष्टि मानव प्रकृति के दैहिक और चैतसिक पक्षों के आधार पर का विकास हुआ जिसमें शारीरिक माँगों का ठुकराना ही जीवन-लक्ष्य मान प्रवर्तक और निवर्तक धर्मों के विकास की इस प्रक्रिया को निम्न सारिणी लिया गया और देह-दण्डन ही तप-त्याग और आध्यात्मिकता के प्रतीक के माध्यम से अधिक स्पष्ट किया जा सकता है बन गए। प्रवर्तक धर्म जैविक मूल्यों पर बल देते हैं अत: स्वाभाविक रूप से वे समाजगामी बने, क्योंकि दैहिक आवश्यकता की जिज्ञासा जिसका निवर्तक एवं प्रवर्तक धर्मों के दार्शनिक एवं सांस्कृतिक प्रदेय एक अंग काम भी है, की पूर्ण सन्तुष्टि तो समाज-जीवन में ही सम्भव प्रवर्तक और निवर्तक धर्मों का यह विकास भिन्न-भिन्न थी, किन्तु विराग और त्याग पर अधिक बल देने के कारण निवर्तक धर्म मनोवैज्ञानिक आधारों पर हुआ था, अत: यह स्वाभाविक था कि उनके समाज-विमुख और वैयक्तिक बन गए। यद्यपि दैहिक मूल्यों की उपलब्धि दार्शनिक एवं सांस्कृतिक प्रदेय भिन्न-भिन्न हों। प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मों हेतु कर्म आवश्यक थे किन्तु जब मनुष्य ने यह देखा कि दैहिक के इन प्रदेयों और उनके आधार पर उनमें रही हुई पारस्परिक भिन्नता आवश्यताओं की सन्तुष्टि के लिये उसके वैयक्तिक प्रयासों के बावजूद को अगली सारणी से स्पष्टतया समझा जा सकता है उनकी पूर्ति या अपूर्ति किन्ही अन्य शक्तियों पर निर्भर है, तो वह देववादी मनुष्य और ईश्वरवादी बन गया। विश्व-व्यवस्था और प्राकृतिक शक्तियों के नियन्त्रक तत्त्व के रूप में उसने विभिन्न देवों और फिर ईश्वर की कल्पना चेतना की और उनकी कृपा की आकांक्षा करने लगा। इसके विपरीत निवर्तक धर्म व्यवहार में नैष्कर्म्यता के समर्थक होते हुए भी कर्म-सिद्धान्त के प्रति वासना आस्था के कारण यह मानने लगे कि व्यक्ति का बन्धन और मुक्ति स्वयं विराग (त्याग) उसके कारण है, अत: निवर्तक धर्म पुरुषार्थवाद और वैयक्तिक प्रयासों पर आस्था रखने लगे। अनीश्वरवाद, पुरुषार्थवाद और कर्मसिद्धान्त उसके अभ्युदय (प्रेय) निःश्रेयस् प्रमुख तत्त्व बन गए। साधना के क्षेत्र में जहाँ धर्म में अलौकिक दैवीय स्वर्ग मोक्ष (निर्वाण) शक्तियों की प्रसन्नता के निमित्त कर्मकाण्ड और बाह्य-विधानों (यज्ञ-याग) का विकास हुआ, वहीं निवर्तक धर्मों ने चित्त-शुद्धि और सदाचार पर सन्यास अधिक बल दिया तथा किन्हीं दैवीय शक्तियों के निमित्त कर्म-काण्ड के प्रवृत्ति निवृत्ति सम्पादन को अनावश्यक माना। सांस्कृतिक प्रदेयों की दृष्टि से प्रवर्तक धर्म वर्ण-व्यवस्था, प्रर्वतक धर्म निवर्तक धर्म ब्राह्मण संस्था (पुरोहित वर्ग) के प्रमुख समर्थक रहे। ब्राह्मण वर्ग मनुष्य अलौकिक शक्तियों की उपासना आत्मोपलब्धि और ईश्वर के बीच एक मध्यस्थ का कार्य करने लगा तथा उसने अपनी आजीविका को सुरक्षित बनाए रखने के लिये एक ओर समाज-जीवन में अपने वर्चस्व को स्थापित रखना चाहा, तो दूसरी ओर धर्म को समर्पणमूलक यज्ञमुलक चिन्तन प्रधान देहदण्डन मलक कर्मकाण्ड और जटिल विधि-विधानों की औपचारिकता में उलझा दिया। भक्ति-मार्ग कर्म-मार्ग ज्ञान-मार्ग तप-मार्ग विवेक भोग कर्म चिन्तन प्रभात Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रर्वतक धर्म दर्शनिक प्रदेय १. जैविक मूल्यों की प्रधानता २. विधायक जीवन दृष्टि ३. समष्टिवादी ४. व्यवहार में कर्म पर बल फिर भी भाग्यवाद एवं नियतिवाद का समर्थन ईश्वरवादी ५. ६. ईश्वरीय कृपा पर विश्वास ७. श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव साधना के बाह्य साधनों पर बल जीवन का लक्ष्य स्वर्ग / ईश्वर के सान्निध्य की प्राप्ति सांस्कृतिक प्रदे ९. वर्ण व्यवस्था और जातिवाद का जन्मना आधार पर समर्थन १०. गृहस्थ जीवन की प्रधानता ११. सामाजिक जीवन शैली । १२. राजतन्त्र का समर्थन १३. शक्तिशाली की पूजा १४. विधि विधानों एवं कर्म काण्डों की प्रधानता १५. ब्राह्मण-संस्था (पुरोहित वर्ग) का विकास १६. उपासनामूलक परिणामस्वरूप ऊंच-नीच का भेद-भाव, जातिवाद और कर्मकाण्ड का विकास हुआ। किन्तु उसके विपरीत निवर्तक धर्म ने संयम, ध्यान और तप की एक सरल साधना-पद्धति का विकास किया और वर्ण-व्यवस्था, जातिवाद और ब्राह्मण संस्था के वर्चस्व का विरोध किया। उनमें ब्राह्मण संस्था के स्थान पर श्रमण संघों का विकास हुआ जिसमें सभी जाति और वर्ग के लोगों को समान स्थान मिला। राज्य संस्था की दृष्टि से जहाँ प्रवर्तक धर्म राजतंत्र और अन्याय के प्रतिकार के हेतु संघर्ष की नीति के समर्थक रहे, वहाँ निवर्तक धर्म जनतन्त्र और आत्मोत्सर्ग के समर्थक रहे । संस्कृतियों के समन्वय की यात्रा यद्यपि उपरोक्त आधार पर हम प्रवर्तक धर्म अर्थात् वैदिक परम्परा और निवर्तक धर्म अर्थात् श्रमण परम्परा की मूलभूत विशेषताओं और उनके सांस्कृतिक एवं दार्शनिक प्रदेयों को समझ सकते हैं किन्तु यह मानना भ्रान्तिपूर्ण ही होगा कि आज वैदिकधारा और श्रमणधारा ने अपने इस मूल स्वरूप को बनाए रखा है। एक ही देश और परिवेश में रहकर दोनों ही धाराओं के लिये यह असम्भव था कि वे एक-दसूरे के १. २. ३. ४. ९. निर्वतक धर्म ५. अनीश्वरवादी ६. वैयक्तिक प्रयासों पर विश्वास, कर्म सिद्धान्त का समर्थन ७. ८. आध्यात्मिक मूल्यों की प्रधानता । निषेधक जीवन-दृष्टि । व्यष्टिवादी। व्यवहार में नैष्कर्म्यता का समर्थन फिर भी दृष्टि पुरुषर्थपरक । आन्तरिक विशुद्धता पर बल । जीवन का मोक्ष एवं निर्वाण की प्राप्ति । जातिवाद का विरोध, वर्ण-व्यवस्था का केवल कर्मणा आधार पर समर्थन। १०. संन्यास जीवन की प्रधानता । ११. एकाकी जीवन शैली | ५९३ १२. जनतन्त्र का समर्थन । १३. सदाचारी की पूजा १४. ध्यान और तप की प्रधानता । १५. श्रमण संस्था का विकास। १६. समाधिमूलक । प्रभाव से अछूती रहें। अतः जहाँ वैदिकधारा में श्रमणधारा (निवर्तक धर्मपरम्परा) के तत्त्वों का प्रवेश हुआ है, वहाँ श्रमणधारा में प्रवर्तक धर्मपरम्परा के तत्त्वों का प्रवेश हुआ है। अतः आज के युग में कोई धर्मपरम्परा न तो ऐकान्तिक निवृत्तिमार्ग की पोषक है और न ऐकान्तिक प्रवृत्तिमार्ग की वस्तुतः निवृत्ति और प्रवृत्ति के सम्बन्ध में ऐकान्तिक दृष्टिकोण न तो व्यावहारिक है और न मनोवैज्ञानिक मनुष्य जब तक मनुष्य है, मानवीय आत्मा जब तक शरीर के साथ याजित होकर सामाजिक जीवन जीती है, तब तक ऐकान्तिक प्रवृत्ति और ऐकान्तिक निवृत्ति की बात करना एक मृग मरीचिका में जीना होगा। वस्तुतः आवश्यकता इस बात की रही है कि हम वास्तविकता को समझें और प्रवृत्ति तथा निवृत्ति के तत्त्वों में समुचित समन्वय से एक ऐसी जीवन शैली खोजें जो व्यक्ति और समाज दोनों के लिये कल्याणकारी हो और मानव को तृष्णाजनित मानसिक एवं सामाजिक सन्यास से मुक्ति दिला सके। इस प्रकार इन दो भिन्न संस्कृतियों में पारस्परिक समन्वय आवश्यक था। भारत में प्राचीन काल से ही ऐसे प्रयत्न होते रहे हैं। प्रवर्तक . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ धारा के प्रतिनिधि हिन्दूधर्म में समन्वय के सबसे अच्छे उदाहरण ही ये दोनों धाराएँ परस्पर एक दूसरे से प्रभावित होती रही हैं। अपनीईशावास्योपनिषद् और भगवद्गीता हैं। भगवद्गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति अपनी विशेषताओं के आधार पर विचार के क्षेत्र में हम चाहे उन्हें अलगमार्ग के समन्वय का स्तुत्य प्रयास हुआ है। इसी प्रकार श्रमण-धारा में अलग देख लें किन्तु व्यावहारिक स्तर पर उन्हें एक दूसरे से पृथक् नहीं भी परवर्ती काल में प्रवर्तक धर्म के तत्त्वों का प्रवेश हुआ है। श्रमण-परम्परा कर सकते। भारतीय वाङ्मय में ऋग्वेद प्राचीनतम माना जाता है। उसमें की एक अन्य धारा के रूप में विकसित बौद्ध धर्म में तो प्रवर्तक धारा जहाँ एक ओर वैदिक समाज एवं वैदिक क्रिया-काण्डों का उल्लेख है, के तत्त्वों का इतना अधिक प्रवेश हुआ कि महायान से तन्त्रयान की यात्रा वहीं दूसरी ओर उसमें न केवल व्रात्यों, श्रमणों एवं अर्हतों की उपस्थिति तक वह अपने मूल स्वरूप से काफी दूर हो गया। भारतीय धर्मों के के उल्लेख उपलब्ध हैं, अपितु ऋषभ, अरिष्टनेमि आदि जो जैन परम्परा ऐतिहासिक विकास-क्रम में हम कालक्रम में हुए इस आदान-प्रदान की में तीर्थङ्कर के रूप में मान्य हैं, के प्रति समादर भाव भी व्यक्त किया गया उपेक्षा नहीं कर सकते हैं। इसी आदान-प्रदान के कारण ये परम्पराएँ एक- है। इससे यह प्रतीत होता है कि ऐतिहासिक युग के प्रारम्भ से ही भारत दूसरे के काफी निकट आ गई हैं। में ये दोनों संस्कृतियाँ साथ-साथ प्रवाहित होती रही हैं। हिन्दूधर्म की शैव इससे यह भी सिद्ध होता है कि भारतीय संस्कृति एक संश्लिष्ट धारा और सांख्ययोग आदि की परम्पराएँ मूलत: निवर्तक या श्रमण रही संस्कृति है। उसे हम विभिन्न चहारदीवारियों में अवरूद्ध कर कभी भी हैं जो कालक्रम में बृहद् हिन्दूधर्म में आत्मसात् कर ली गई हैं। सम्यक् प्रकार से नहीं समझ सकते हैं, उसको खण्ड-खण्ड में विभाजित मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन से जिस प्राचीन भारतीय करके देखने में उसकी आत्मा ही मर जाती है। जैसे शरीर को खण्ड- संस्कृति की जानकारी हमें उपलब्ध होती है, उससे सिद्ध होता है कि खण्ड कर देखने से शरीर की क्रिया-शक्ति को नहीं समझा जा सकता वैदिक संस्कृति के पूर्व भी भारत में एक उच्च संस्कृति अस्तित्व रखती है, वैसे ही भारतीय संस्कृति को खण्ड-खण्ड करके उसकी मूल आत्मा थी जिसमें ध्यान आदि पर बल दिया जाता था। उस उत्खनन में ध्यानस्थ को नहीं समझ जा सकता है। भारतीय संस्कृति को हम तभी सम्पूर्ण रूप योगियों की सीलें आदि मिलना तथा यज्ञशाला आदि का न मिलना यही से समझ सकते हैं, जब उसके विभिन्न घटकों अर्थात् जैन, बौद्ध और सिद्ध करता है कि वह संस्कृति तप, योग एवं ध्यान-प्रधान व्रात्य या हिन्दू धर्म-दर्शन का समन्वित एवं सम्यक् अध्ययन न कर लिया जाय। श्रमण-संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती थी। यह निश्चित है कि आर्यों के बिना उसके संयोजित घटकों के ज्ञान से उसका सम्पूर्णता में ज्ञान सम्भव आगमन के साथ प्रारम्भ हुए वैदिक युग से ये दोनों ही धाराएँ साथ-साथ ही नहीं है। एक इंजन की प्रक्रिया को भी सम्यक् प्रकार से समझने के प्रभावित हो रही हैं और उन्होंने एक-दूसरे को पर्याप्त रूप से प्रभावित लिये न केवल उसके विभिन्न घटकों को अर्थात् कल-पुों का ज्ञान भी किया है। ऋग्वेद में व्रात्यों के प्रति जो तिरस्कार भाव था, वह अथर्ववेद आवश्यक होता है, अपितु उनके परस्पर संयोजित रूप को भी देखना में समादार भाव में बदल जाता है जो दोनों धाराओं के समन्वय का प्रतीक होता है। अत: हमें स्पष्ट रूप से इस तथ्य को समझ लेना चाहिये कि है। तप, त्याग, संन्यास, ध्यान, समाधि, मुक्ति और अहिंसा की भारतीय संस्कृति के अध्ययन एवं शोध के क्षेत्र में अन्य सहवर्ती अवधारणाएँ जो प्रारम्भिक वैदिक ऋचाओं और कर्मकाण्डीय ब्राह्मण परम्पराओं और उनके पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन के बिना कोई भी ग्रन्थों में अनुपलब्धं थीं, वे आरण्यक आदि परवर्ती वैदिक साहित्य में शोध परिपूर्ण नहीं हो सकती है। धर्म और संस्कृति शून्य में विकसित और विशेष रूप से उपनिषदों में अस्तित्व में आ गयी हैं। इससे लगता नहीं होते, वे अपने देश, काल और सहवर्ती परम्परओं से प्रभावित होकर है कि ये अवधारणाएँ संन्यासमार्गीय श्रमणधारा के प्रभाव से ही वैदिक ही अपना स्वरूप ग्रहण करते हैं। यदि हमें जैन, बौद्ध, वैदिक या अन्य धारा में प्रविष्ट हुई हैं। उपनिषदों, महाभारत और गीता में एक ओर वैदिक किसी भी भारतीय सांस्कृतिक धारा का अध्ययन करना है, उसे सम्यक् कर्मकाण्ड की समालोचना और उन्हें आध्यात्मिकता से समन्वित कर नए प्रकार से समझना है, तो उसके देश, काल एवं परिवेशगत पक्षों को भी रूप में परिभाषित करने का प्रयत्न तथा दूसरी ओर तप, संन्यास और प्रामाणिकतापूर्वक तटस्थ बुद्धि से समझना होगा। चाहे जैन विद्या के शोध मुक्ति आदि की स्पष्ट रूप से स्वीकृति, यही सिद्ध करती है कि ये ग्रन्थ एवं अध्ययन का प्रश्न हो या अन्य किसी भारतीय विद्या का, हमें उसकी वैदिक एवं श्रमणधारा के बीच हुए समन्वय या संगम के ही परिचायक दूसरी परम्परओं को अवश्य ही जानना होगा और यह देखना होगा कि हैं। हमें यह स्मरण रखना होगा कि उपनिषद् और महाभारत जिसका एक वह उन दूसरी सहवर्ती परम्पराओं से किस प्रकार प्रभावित हुई है और अंग गीता है, शुद्ध रूप से वैदिक कर्मकाण्डात्मक धर्म के प्रतिनिधि नहीं उसने उन्हें किस प्रकार प्रभावित किया है। पारस्परिक प्रभाव के अध्ययन है। वे निवृत्तिप्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्तिमार्गी वैदिकधारा के समन्वय के बिना कोई भी अध्ययन पूर्ण नहीं होता है। का परिणाम हैं। उपनिषदों में, महाभारत और गीता में जहाँ एक ओर यह सत्य है कि भारतीय संस्कृति के इतिहास के आदिकाल श्रमणधारा के आध्यात्मिक और निवृत्ति-प्रधान तत्त्वों को स्थान दिया गया से ही हम उसमे श्रमण और वैदिक संस्कृति का अस्तित्व साथ-साथ पाते है, वहीं दूसरी ओर यज्ञ आदि वैदिक कर्मकाण्डों की श्रमणपरम्परा के हैं किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि भारतीय संस्कृति में इन दोनों समान आध्यात्मिक दृष्टि से नवीन परिभाषाएँ भी प्रस्तुत की गई हैं, उसमें स्वतन्त्र धाराओं का संगम हो गया है और अब उन्हें एक-दूसरे से पूर्णतया यज्ञ का अर्थ पशुबलि न होकर स्वहितों की बलि या समाजसेवा हो गया। अलग नहीं किया जा सकता। भारतीय इतिहास के प्रारम्भिक काल से हमें यह स्मरण रखना होगा कि हमारा आज का हिन्दूधर्म वैदिक और Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव ५९५ श्रमणधाराओं के समन्वय का परिणाम है। वैदिक कर्मकाण्ड के विरोध अवतार के रूप में स्वीकार कर लिया गया, वहीं जैन परम्परा में राम और में जो आवाज औपनिषदिक युग के ऋषि-मुनियों ने उठाई थी, जैन और कृष्ण को शलाका पुरुष के रूप में मान्यता मिली। इस प्रकार दानों धाराएँ अन्य श्रमण परम्पराओं ने मात्र उसे मुखर ही किया है। हमें यह नहीं भूलना एक दूसरे से समन्वित हुईं। चाहिये कि वैदिक कर्मकाण्ड के प्रति यदि किसी ने पहली आवाज उठाई आज हमें उनकी इस पारस्परिक प्रभावशीलता को तटस्थ दृष्टि तो वे औपनिषदिक ऋषि ही थे। उन्होंने ही सबसे पहले कहा था कि ये से स्पष्ट करने का प्रयास करना चाहिये, ताकि धर्मों के बीच जो दूरियाँ यज्ञरूपी नौकाएँ अदृढ़ हैं, ये आत्मा के विकास में सक्षम नहीं हैं। यज्ञ पैदा कर दी गयी हैं, उन्हें समाप्त किया जा सके और उनकी निकटता आदि वैदिक कर्मकाण्डों की नवीन आध्यात्मिक दृष्टि से व्याख्या करने को भी सम्यक् रूप से समझा जा सके। का कार्य औपनिषदिक ऋषियों और गीता के प्रवक्ता का है। महावीर एवं दुर्भाग्य से इस देश में विदेशी तत्त्वों के द्वारा न केवल हिन्दू बुद्धकालीन जैन और बौद्ध परम्पराएँ तो औपनिषदिक ऋषियों के द्वारा और मुसलमानों के बीच अपितु जैन, बौद्ध, हिन्दू और सिक्खों जो कि प्रशस्त किये गए पथ पर गतिशील हुई हैं। वे वैदिक कर्मकाण्ड, जन्मना बृहद् भारतीय परम्परा के ही अंग हैं, के बीच भी खाइयाँ खोदने का कार्य जातिवाद और मिथ्या विश्वासों के विरोध में उठे हुए औपनिषदिक ऋषियों किया जाता रहा है और सामान्य रूप से यह प्रसारित किया जाता रहा के स्वर का ही मुखरित रूप हैं। जैन और बौद्ध परम्पराओं में औपनिषदिक हैं कि जैन और बौद्ध धर्म न केवल स्वतन्त्र धर्म हैं, अपितु वे वैदिक ऋषियों की अर्हत् ऋषियों के रूप में स्वीकृति इसका स्पष्ट प्रमाण है। हिन्दू-परम्परा के विरोधी भी हैं। सामान्यतया जैन और बौद्ध धर्म को वैदिक यह सत्य है कि श्रमणों ने यज्ञों में पशुबलि, जन्मना वर्ण- धर्म के प्रति एक विद्रोह के रूप में चित्रित किया जाता है। यह सत्य है व्यवस्था और वेदों के प्रामाण्य से इन्कार किया और इस प्रकार वे भारतीय कि वैदिक और श्रमण-परम्पराओं में कुछ मूल-भूत प्रश्नों को लेकर स्पष्ट संस्कृति के समुद्धारक के रूप में ही सामने आये किन्तु हमें यह भी नहीं मतभेद हैं। यह भी सत्य है कि जैन-बौद्ध परम्परा ने वैदिक परम्परा की भूलना चाहिये कि भारतीय संस्कृति में आई इन विकृतियों के परिमार्जन उन विकृतियों का जो कर्मकाण्ड, पुरोहितवाद, जातिवाद और ब्राह्मण करने की प्रक्रिया में वे स्वयं ही कहीं न कहीं उन विकृतियों से प्रभावित वर्ग के द्वारा निम्न वर्गों के धार्मिक शोषण के रूप में उभर रही थी, खुलकर हो गए हैं। वैदिक कर्मकाण्ड अब पूजा-विधानों एवं तन्त्र-साधना के नये विरोध किया, किन्तु हमें उसे विद्रोह के रूप में नहीं अपितु भारतीय रूप में बौद्ध, जैन और अन्य श्रमण-परम्पराओं में प्रविष्ट हो गया है और संस्कृति के परिष्कार के रूप में ही समझना होगा। जैन ओर बौद्ध धर्मों उनकी साधना-पद्धति का एक अंग बन गया है। आध्यात्मिक विशुद्धि ने भारतीय संस्कृति में आ रही विकृतियों का परिशोधन कर उसे स्वस्थ के लिये किया जाने वाला ध्यान अब भौतिक सिद्धियों के निमित्त किया बनाने हेतु एक चिकित्सक का कार्य किया है। किन्तु स्मरण रखना होगा जान लगा है। जहाँ एक ओर भारतीय श्रमण-परम्परा ने वैदिक परम्परा कि चिकित्सक कभी भी शत्रु नहीं होता, मित्र ही होता है। दुर्भाग्य से को आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि के साथ-साथ तप, त्याग, संन्यास और मोक्ष पाश्चात्य चिन्तकों के प्रभाव से भारतीय चिन्तक और किसी सीमा तक की अवधारणाएँ प्रदान की, वहीं दूसरी ओर इसकी तीसरी-चौथी-शती कुछ जैन और बौद्ध चिन्तक भी यह मानने लगे हैं कि जैनधर्म और वैदिक से वैदिक परम्परा के प्रभाव से पूजा-विधान और तान्त्रिक साधनाएँ जैन (हिन्दू) धर्म परस्पर विरोधी धर्म हैं किन्तु यह एक भ्रान्त अवधारणा है। और बौद्ध परम्पराओं में प्रविष्ट हो गईं। अनेक हिन्दू देव-देवियाँ प्रकारान्तर चाहे अपने मूल रूप में वैदिक एवं श्रमण संस्कृति प्रवर्तक और निवर्तक में जैनधर्म एवं बौद्धधर्म में स्वीकार कर ली गईं। जैनधर्म में यक्ष-यक्षिणियों धर्म-परम्पराओं के रूप में भिन्न-भिन्न रही हों किन्तु आज न तो हिन्दूएवं शासन-देवता की अवधारणाएँ हिन्दू देवताओं का जैनीकरण मात्र परम्परा ही उस अर्थ में पूर्णत: वैदिक है और न ही जैन-बौद्ध परम्परा हैं। अनेक हिन्दू देवियाँ जैसे- काली, महाकाली, ज्वालामालिनी, पूर्णत: श्रमण। आज चाहे हिन्दू धर्म हो अथवा जैन और बौद्ध धर्म हों, अम्बिका, चक्रेश्वरी, पद्मावती, सिद्धायिका तीर्थंकरों की शासन-रक्षक ये सभी अपने वर्तमान स्वरूप में वैदिक और श्रमण संस्कृति के समन्वित देवियों के रूप में जैनधर्म का अंग बन गई। इसी प्रकार श्रुत-देवता के रूप हैं। यह बात अलग है कि उनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति में से कोई एक रूप में सरस्वती और दम्पत्ति प्रदाता के रूप में लक्ष्मी की उपासना भी पक्ष अभी भी प्रमुख है। उदाहरण के रूप में हम कह सकते हैं कि जहाँ जैनधर्म में होने लगी और हिन्दू-परम्परा का गणेश पार्श्व-यक्ष के रूप में जैन धर्म आज भी निवृत्तिप्रधान है वहाँ हिन्दू धर्म प्रवृत्ति-प्रधान। फिर भी लोक-मंगल का देवता बन गया। वैदिक परम्परा के प्रभाव से जैन मन्दिरों यह मानना उचित होगा कि ये दोनों धर्म प्रवृत्ति और निवृत्ति के समन्वय में भी अब यज्ञ होने लगे और पूजा-विधान में हिन्दू देवताओं की तरह से ही निर्मित हुए हैं। तीर्थङ्करों का भी आवाहान एवं विसर्जन किया जाने लगा। हिन्दुओं की हम पूर्व में यह स्पष्ट कर चुके हैं कि इस समन्वय का प्रथम पूजा-विधि को भी मन्त्रों में कुछ शब्दिक परिवर्तनों के साथ जैनों ने स्वीकार प्रयत्न हमें ईशावास्योपनिषद् में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। अतः कर लिया। इस सबकी विस्तृत चर्चा आगे की गई है। इस प्रकार जैन आज जहाँ उपनिषदों को प्राचीन श्रमण-परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने और बौद्ध परम्पराओं में तप, ध्यान और समाधि की साधना गौण होकर की आवश्कता है, वहीं जैन और बौद्ध परम्परा को भी औपनिषदिक पूजा-विधि-विधान प्रमुख हो गया। इस पारस्परिक प्रभाव का एक परिणाम परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्कता है। जिस प्रकार वासना यह भी हुआ कि जहाँ हिन्दू परम्पराओं में ऋषभ और बुद्ध को ईश्वर के और विवेक, प्रेय और श्रेय, परस्पर भिन्न-भिन्न होकर भी मानव व्यक्तित्व Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ के ही अंग हैं उसी प्रकार निवृत्ति-प्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्ति-प्रधान आदि जैनागम हिंसक यज्ञीय कर्मकाण्ड का निषेध करते हैं, किन्त वे वैदिकधारा दोनों भारतीय संस्कृति के ही अंग हैं। वस्तुतः कोई भी संस्कृति ब्राह्मणों को भी उसी नैतिक एवं आध्यात्मिक पथ का अनुगामी मानते ऐकान्तिक निवृत्ति या ऐकान्तिक प्रवृत्ति के आधार पर प्रतिष्ठित नहीं हो हैं जिस पथ पर श्रमण चल रहे थे। उनकी दृष्टि में ब्राह्मण वह है जो सदाचार सकती है। जैन और बौद्ध परम्पराएँ भारतीय संस्कृति का वैसे ही अभिन्न का जीवन्त प्रतीक है। उसमें अनेक स्थलों पर श्रमणों और ब्राह्मणों अंग हैं, जैसे हिन्दू-परम्परा। यदि औपनिषदिक धारा को वैदिक धारा से (समणा-माहणा) का साथ-साथ उल्लेख हुआ है। भिन्न होते हुए भी वैदिक या हिन्दू-परम्परा का अभिन्न अंग माना जाता इसी प्रकार सूत्रकृतांग में यद्यपि तत्कालीन दार्शनिक मान्यताओं है तो फिर जैन और बौद्ध परम्पराओं को उसका अभिन्न अंग क्यों नहीं की समीक्षा है किन्तु उनके साथ ही उसमें औपनिषदिक युग के अनेक माना जा सकता। यदि सांख्य और मीमांसक अनीश्वरवादी होते हुए भी ऋषियों यथा-विदेहनमि, बाहुक, असितदेवल, द्वैपायन, पाराशर आदि अभी तक हिन्दू-धर्म दर्शन के अंग माने जाते हैं, तो फिर जैन व बौद्ध का समादरपूर्वक उल्लेख हुआ है। सूत्रकृतांग स्पष्ट रूप से स्वीकार करता धर्म को अनीश्वरवादी कहकर उससे कैसे भिन्न किया जा सकता है? है कि इन ऋषियों के आचार-नियम उसकी आचार-परम्परा से भिन्न थे, वस्तुतः हिन्दू-परम्परा कोई एक धर्म और दर्शन न होकर व्यापक परम्परा फिर भी वह उन्हें अपनी अर्हत् परम्परा का ही पूज्य पुरुष मानता है। वह का नाम है या कहें कि वह अभिन्न वैचारिक एवं साधनात्मक परम्पराओं उनका महापुरुष और तपोधन के रूप में उल्लेख करता है और यह मानता का समूह है। उसमें ईश्वरवाद-अनीश्वरवाद, द्वैतवाद-अद्वैतवाद, प्रवृत्ति- है कि उन्होंने सिद्धि अर्थात् जीवन के चरम साध्य मोक्ष को प्राप्त कर निवृत्ति, ज्ञान-कर्म सभी कुछ तो समाहित है। उसमें प्रकृति-पूजा जैसे धर्म लिया था। सूत्रकृतांग की दृष्टि में ये ऋषिगण भिन्न आचार-मार्ग का पालन के प्रारम्भिक लक्षणों से लेकर अद्वैत की उच्च गहराइयाँ तक सभी कुछ करते हुए भी उसकी अपनी ही परम्परा के ऋषि थे। सूत्रकृतांग में इन तो उसमें सन्निविष्ट हैं। अत: हिन्दू उसी अर्थ में कोई एक धर्म नहीं है ऋषियों को महापुरुष, तपोधन एवं सिद्धि-प्राप्त कहना तथा उत्तराध्ययन जैसे यहूदी, ईसाई या मुसलमान। हिन्दू एक संश्लिष्ट परम्परा है, एक में अन्य लिंग सिद्धों का अस्तित्व मानना यही सूचित करता है कि प्राचीन सांस्कृतिक धारा है जिसमें अनेक धाराएँ समाहित हैं। काल में जैन परम्परा अत्यन्त उदार थी और वह मानती थी कि मुक्ति का अत: जैन और बौद्ध धर्म को हिन्दू-परम्परा से नितान्त भिन्न अधिकार केवल उसके आचार-नियमों का पालन करने वाले को ही नहीं नहीं माना जा सकता। जैन और बौद्ध भी उसी अध्यात्म-पक्ष के अनुयायी है, अपितु भिन्न आचार-मार्ग का पालन करने वाला भी मुक्ति का अधिकारी हैं जिसके औपनिषदिक ऋषि। उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने भारतीय हो सकता है। समाज के दलित वर्ग के उत्थान तथा जन्मना जातिवाद, कर्मकाण्ड व इसी सन्दर्भ में यहाँ ऋषिभाषित (इसिभासियाई) का उल्लेख पुरोहितवाद से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने उस धर्म का प्रतिपादन करना भी आवश्यक है जो जैन आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ किया जो जनसामान्य का.धर्म था और जिसे कर्मकाण्डों की अपेक्षा नैतिक (ई०पू० चौथी शती) है। जैन परम्परा में इस ग्रन्थ का निर्माण उस समय सद्गुणों पर अधिष्ठित किया गया था। उन्होंने भारतीय समाज को पुरोहित हुआ होगा जब जैन धर्म एक सम्प्रदाय के रूप में विकसित नहीं हुआ वर्ग के धार्मिक शोषण से मुक्त किया। वे विदेशी नहीं हैं, इसी माटी की था। इस ग्रन्थ में नारद, असितदेवल, अंगिरस, पाराशर, अरुण, सन्तान हैं, वे शत-प्रतिशत भारतीय हैं। जैन, बौद्ध और औपनिषदिक नारायण, याज्ञवल्क्य, उद्दालक, विदुर, सारिपुत्त, महाकश्यप, मंखलिगोशाल, धारा किसी एक ही मूल स्त्रोत के विकास हैं और आज उन्हें उसी परिप्रेक्ष्य संजय (वेलिठ्ठिपुत्त) आदि पैंतालिस ऋषियों का उल्लेख है और इन सभी में समझने की आवश्यकता है। को अर्हत् ऋषि या ब्राह्मण ऋषि कहा गया है। ऋषिभाषित में इनके भारतीय धर्मों, विशेषरूप से औपनिषकि, बौद्ध और जैन धर्मों आध्यात्मिक और नैतिक उपदेशों का संकलन है। जैन-परम्परा में इस की जिस पारस्परिक प्रभावशीलता के अध्ययन की आज विशेष ग्रन्थ की रचना इस तथ्य का स्पष्ट संकेत है कि औपनिषदिक ऋषियों आवश्यकता है, उसे समझने में प्राचीन स्तर के जैन आगम यथा- की परम्परा और जैन-परम्परा का उद्गम स्त्रोत एक ही है। यह ग्रन्थ न आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन आदि हमारे दिशा- केवल जैन धर्म की धार्मिक उदारता का सूचक है, अपितु यह भी बताता निर्देशक सिद्ध हो सकते हैं। मुझे विश्वास है कि इन ग्रन्थों के अध्ययन है कि सभी भारतीय आध्यात्मिक परम्पराओं का मूल स्त्रोत एक ही है। से भारतीय विद्या के अध्येताओं को एक नई दिशा मिलेगी और यह मिथ्या औपनिषदिक, बौद्ध, जैन, आजीवक, सांख्य, योग आदि सभी उसी मूल विश्वास दूर हो जाएगा कि जैनधर्म, बौद्धधर्म और हिन्दूधर्म परस्पर विरोधी स्त्रोत से निकली हुई धाराएँ हैं। जिस प्रकार जैन धर्म के ऋषिभाषित में धर्म हैं। आचारांग में हमें ऐसे अनेक सूत्र उपलब्ध होते हैं जो अपने विभिन्न परम्पराओं के उपदेश संकलित हैं, उसी प्रकार बौद्ध परम्परा की भाव, शब्द-योजना और भाषा-शैली की दृष्टि से औपनिषदिक सूत्रों के थेरगाथा में भी विभिन्न परम्पराओं के जिन-स्थविरों के उपदेश संकलित निकट हैं। आचारांग में आत्म के स्वरूप के सन्दर्भ में जो विवरण प्रस्तुत हैं। उसमें भी अनेक औपनिषदिक एवं अन्य श्रमण-परम्परा के आचार्यों किया गया है वह माण्डूक्योपनिषद् से यथावत् मिलता है। आचारांग में के उल्लेख हैं जिनमें एक वर्धमान (महावीर) भी हैं। यह सब इस तथ्य श्रमण और ब्राह्मण का उल्लेख परस्पर प्रतिस्पर्धियों के रूप में नहीं, का सूचक है कि भारतीय चिन्तन-धारा प्राचीनकाल से ही उदार और अपितु सहगामियों के रूप में मिलता है। चाहे आचारांग, उत्तराध्ययन सहिष्णु रही है और उसकी प्रत्येक धारा में यही उदारता और सहिष्णुता Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव 597 प्रवाहित होती रही है। आज जब हम साम्प्रदायिक अभिनिवेशों में जकड़कर समन्वय स्थापित करना था। यद्यपि गीता में ज्ञानयोग, कर्मयोग और परस्पर संघर्षों में उलझ गये हैं, इन धाराओं का तुलनात्मक अध्ययन हमें भक्तियोग की चर्चा हुई है किन्तु वहाँ इनमें से प्रत्येक को मोक्ष-मार्ग मान एक नयी दृष्टि प्रदान कर सकता है। यदि भारतीय सांस्कृतिक चिन्तन लिया गया है। की इन धाराओं को एक दूसरे से अलग कर देखने का प्रयत्न किया जायगा जैनधर्म ने न केवल वैदिक ऋषियों द्वारा प्रतिपादित यज्ञ-याग तो हम उन्हें सम्यक् रूप से समझने में सफल हो सकेंगे। उत्तराध्ययन, की परम्परा का विरोध किया, वरन् श्रमण-परम्परा के देह-दण्डन की सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और आचारांग को समझने के लिए तपस्यात्मक प्रणाली का भी विरोध किया। सम्भवत: महावीर के पूर्व पार्श्व औपनिषदिक साहित्य का अध्ययन आवश्यक है। उसी प्रकार के काल तक धर्म का सम्बन्ध बाह्य तथ्यों से ही जोड़ा गया था। यही उपनिषदों और बौद्ध साहित्य को भी जैन परम्परा के अध्ययन के अभाव कारण था कि जहाँ ब्राह्मण-वर्ग यज्ञ-याग के क्रियाकाण्डों में ही धर्म की में सम्यक् प्रकार से नहीं समझा जा सकता है। आज साम्प्रदायिक इतिश्री मान लेता था। सम्भवतः जैन परम्परा के महावीर के पूर्ववर्ती अभिनिवेशों से ऊपर उठकर तटस्थ एवं तुलनात्मक रूप से सत्य का तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ ने आध्यात्मिक साधना के बाह्य पहलू के स्थान पर उसके अन्वेषण ही एक ऐसा विकल्प है जो साम्प्रदायिक अभिनिवेश से ग्रस्त आन्तरिक पहलू पर बल दिया था और परिणामस्वरूप श्रमण-परम्पराओं मानव को मुक्ति दिला सकता है और भारतीय धर्मों की पारस्परिक में भी बौद्ध आदि कुछ धर्म-परम्पराओं ने इस आन्तरिक पहलू पर अधिक प्रभावशीलता को स्पष्ट कर सकता है। बल देना प्रारम्भ कर दिया था। लेकिन महावीर के युग तक धर्म एवं साधना का यह बाह्यमुखी दृष्टिकोण पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाया था, वरन् जैन धर्म का हिन्दू धर्म को अवदान ब्राह्मण परम्परा में तो यज्ञ, श्रद्धादि के रूप में वह अधिक प्रसार पा गया औपनिषदिक काल .या महावीर-युग की सबसे प्रमुख समस्या था। दूसरी ओर जिन विचारकों ने साधना के आन्तरिक पक्ष पर बल देना यह थी कि उस युग में अनेक परम्पराएँ अपने एकांगी दृष्टिकोण को ही प्रारम्भ किया था, उन्होंने उसके बाह्य पक्ष की पूरी तरह अवहेलना करना पूर्ण सत्य समझकर परस्पर एक-दूसरे के विरोध में खड़ी थीं। उस युग प्रारम्भ कर दिया था, परिणामस्वरूप वे भी एक अति की ओर जाकर में चार प्रमुख वर्ग थे- 1. क्रियावादी, 2. अक्रियावादी, 3. विनयवादी एकांगी बन गए। अत: मवीर ने दोनों ही पक्षों में समन्वय स्थापित करने और 4. अज्ञानवादी। महावीर ने सर्वप्रथम उनमें समन्वय करने का प्रयास का प्रयत्न किया और यह बताया कि धर्म-साधना का सम्बन्ध सम्पूर्ण किया। प्रथम, क्रियावादी दृष्टिकोण आचार के बाह्य पक्षों पर अधिक बल जीवन से है। उसमें आचरण के बाह्य पक्ष के रूप में क्रिया का जो स्थान देता था। वह कर्मकाण्डपरक था। बौद्ध परम्परा में इस धारणा को शीलव्रत है, उससे भी अधिक स्थान आचरण के आन्तरिक प्रेरक का है। इस प्रकार परामर्श कहा गया है। दूसरा दृष्टिकोण अक्रियावाद का था। अक्रियावाद उन्होंने धार्मिक जीवन में आचरण के प्रेरक और आचरण के परिणाम दोनों के तात्त्विक आधार या तो विभिन्न नियतिवादी दृष्टिकोण थे या आत्मा पर ही बल दिया। उन्होंने ज्ञान और क्रिया के बीच समन्वय स्थापित किया। को कूटस्थ एवं अकर्ता मानने की तात्त्विक अवधारणा के पोषक थे। ये नरसिंहपुराण (61/9/11) में भी आवश्यक नियुक्ति (पृष्ठ, 95-97) परम्पराएँ ज्ञानमार्ग की प्रतिपादक थीं। जहाँ क्रियावाद के अनुसार कर्म के समान ही ज्ञान और क्रिया के समन्वय को अनेक रूपकों से वर्णित या आचरण ही साधना का सर्वस्व था, वहाँ अक्रियावाद के अनुसार ज्ञान किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि जैन-परम्परा के इस चिन्तन में ही साधना का सर्वस्व था। क्रियावाद कर्ममार्ग का प्रतिपादक था और हिन्दू-परम्परा को प्रभावित किया है। अक्रियावाद ज्ञानमार्ग का प्रतिपादक। कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग के अतिरिक्त तीसरी परम्परा अज्ञानवादियों की थी जो अतीन्द्रिय एवं पारलौकिक मानव मात्र की समानता का उद्घोष मान्यताओं को 'अज्ञेय' स्वीकार करती थी। इसका दर्शन रहस्यवाद और उस युग की सामाजिक समस्याओं में वर्ण-व्यवस्था एक सन्देहवाद इन दो रूपों में विभाजित था। इन तीनों परम्पराओं के अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण समस्या थी। वर्ण. का आधार कर्म और स्वभाव को छोड़ चौथी परम्परा विनयवाद की थी जिसे भक्तिमार्ग का प्रारम्भिक रूप माना जन्म मान लिया गया था। परिणामस्वरूप वर्ण-व्यवस्था विकृत हो गयी जाता है। विनयवाद भक्तिमार्ग का ही अपरनाम था। इस प्रकार उस युग थी और ऊँच-नीच का भेद हो गया था जिसके कारण सामाजिक में ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग, भक्तिमार्ग और अज्ञेयवाद (सन्देहवाद) की स्वास्थ्य विषमता के ज्वर से आक्रान्त था। जैन विचारधारा ने जन्मना परम्पराएँ अलग-अलग रूप में प्रतिष्ठित थीं। महावीर ने अपने जातिवाद का विरोध किया और समस्त मानवों की समानता का उद्घोष अनेकान्तवादी दृष्टिकोण के द्वारा इनमें समन्वय खोजने का प्रयास किया। एक ओर उसने हरिकेशी बल जैसे निम्न कुलोत्पन्न को, तो किया। सर्वप्रथम उन्होंने सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-दर्शन और सम्यक् चारित्र दूसरी ओर गौतम जैसे ब्राह्मण कुलोत्पन्न साधकों को अपने साधनाके रूप में त्रिविध मोक्षमार्ग का एक ऐसा सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसमें मार्ग में समान रूप से दीक्षित किया। केवल जातिगत विभेद ही नहीं ज्ञानवादी, कर्मवादी और भक्तिमार्गी परम्पराओं का समुचित समन्वय था। वरन् आर्थिक विभेद भी समानता की दृष्टि से जैन विचारधारा के सामने इस प्रकार महावीर एवं जैन-दर्शन का प्रथम प्रयास ज्ञानमार्गीय, कोई मूल्य नहीं रखता। जहाँ एक ओर मगध-सम्राट तो दूसरी ओर कर्ममार्गीय, विभिन्न भक्तिमार्गी, तापस आदि एकांगी दृष्टिकोणों के मध्य पुणिया जैसे निर्धन श्रावक भी उसकी दृष्टि में समान थे। इस प्रकार Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 598 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ उसने जातिगत या आर्थिक आधार पर ऊँच-नीच का भेद अस्वीकार अन्तर में विशुद्ध है, वही सच्चा ब्राह्मण है। धम्मपद में भी कहा गया है कर मानव मात्र की समानता पर बल दिया। इसका प्रभाव हिन्दूधर्म कि जैसे कमलपत्र पानी से अलिप्त होता है, जैसे आरे की नोक पर सरसों पर भी पड़ा और उसमें भी गुप्तकाल के पश्चात् भक्तियुग में वर्ण- का दाना होता है, वैसे ही जो कामों में लिप्त नहीं होता, जिसने अपने व्यवस्था और ब्राह्मण वर्ग की श्रेष्ठता का विरोध हुआ। वैसे तो दु:खों के क्षय को यहीं पर देख लिया है, जिसने जन्म-मरण के भार को महाभारत के रचनाकाल (लगभग चौथी शती) से ही यह प्रभाव उतार दिया है, जो सर्वथा अनासक्त हैं, जो मेधावी हैं, स्थितप्रज्ञ हैं, जो परिलक्षित होता है। सन्मार्ग तथा कुमार्ग को जानने में कुशल हैं और जो निर्वाण की उत्तम स्थिति को पहुंच चुके हैं- उन्हें ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ।२ इस प्रकार हम ईश्वर से मुक्ति और मानव की स्वतन्त्रता का उद्घोष देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध दोनों परम्पराओं ने ही ब्राह्मणत्व की श्रेष्ठता उस युग की दूसरी समस्या यह थी कि मानवीय स्वतन्त्रता का को स्वीकार करते हुए भी ब्राह्मण की एक नई परिभाषा प्रस्तुत की जो मूल्य लोगों की दृष्टि में कम आँका जाने लगा था। एक ओर ईश्वरवादी श्रमण परम्परा के अनुकूल थी। फलत: न केवल जैन परम्परा एवं बौद्ध धारणाएँ तो दूसरी ओर कालवादी एवं नियतिवादी धारणाएँ मानवीय परम्परा में, वरन् हिन्दू परम्परा के महान् ग्रन्थ महाभारत में भी ब्राह्मणत्व स्वतन्त्रता को अस्वीकार करने लगी थीं। जैन-दर्शन ने इस कठिनाई को की यही परिभाषा दी गई है। जैन परम्परा के उत्तराध्ययनसूत्र, बौद्ध परम्परा समझा और मानवीय स्वतन्त्रता की पुन: प्राण-प्रतिष्ठा की। उसने यह के धम्मपद और महाभारत के शान्तिपर्व में सच्चे ब्राह्मण के स्वरूप का उद्घोष किया कि न तो ईश्वर और न अन्य शक्तियाँ मानव की निर्धारक जो विवरण मिलता है, वह न केवल वैचारिक साम्यता रखता है, वरन् हैं, वरन् मनुष्य स्वयं ही अपना निर्माता है। इस प्रकार उसने मनुष्य को उसमें शाब्दिक साम्यता भी बहुत अधिक है जो कि तुलनात्मक अध्ययन ईश्वरवाद की उस धारणा से मुक्ति दिलाई जो मानवीय स्वतन्त्रता का की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है और इन परम्पराओं के पारस्परिक प्रभाव अपहरण कर रही थी और यह प्रतिपादित किया कि मानवीय स्वतन्त्रता को स्पष्ट करता है। में निष्ठा ही धर्म-दर्शन का सच्चा आधार बन सकती है। जैनों की इस अवधारणा का प्रभाव हिन्दूधर्म पर उतना अधिक नहीं पड़ा, जितना यज्ञ का नया अर्थ अपेक्षित था। फिर भी ईश्वरवाद की स्वीकृति के साथ-साथ मानव की जिस प्रकार ब्राह्मण की नई परिभाषा प्रस्तुत की गई उसी प्रकार श्रेष्ठता के स्वर तो मुखरित हुए ही थे। यज्ञ को भी एक नए अर्थ में परिभाषित किया गया। महावीर ने न केवल हिंसक यज्ञों के विरोध में अपना मन्तव्य प्रस्ततु किया, वरन् उन्होंने यज्ञ रूढ़िवाद से मुक्ति की आध्यात्मिक एवं तपस्यापरक नई परिभाषा भी प्रस्तुत की। उत्तराध्ययन जैन धर्म ने रूढ़िवाद से भी मानव-जाति को मुक्त किया। उसने में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का सविस्तार विवेचन है। बताया गया उस युग की अनेक रूढ़ियों जैसे-पशु-यज्ञ, श्राद्ध, पुरोहितवाद आदि से है कि "तप अग्नि है, जीवात्मा अग्निकुण्ड है, मन, वचन और काया की मानव-समाज को मुक्त करने का प्रयास किया था और इसलिये इन सबका प्रवृत्तियाँ ही कलछी (चम्मच) हैं और कर्मों (पापों) का नष्ट करना ही खुला विरोध भी किया। ब्राह्मण-वर्ग ने अपने को ईश्वर का प्रतिनिधि आहुति है, यही यज्ञ संयम से युक्त होने से शान्तिदायक और सुखकारक बताकर सामाजिक शोषण का जो सिलसिला प्रारम्भ किया था, उसे समाप्त है। ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञ की प्रशंसा की है।"३ फलत: न केवल जैनकरने के लिये जैन एवं बौद्ध परम्पराओं ने प्रयास किया। जैन और बौद्ध परम्परा में वरन् बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में भी यज्ञ-याग के बाह्य आचार्यों ने सबसे महत्त्वपूर्ण काम यह किया कि उन्होंने यज्ञादि प्रत्ययों पक्ष का खण्डन और उसके आध्यात्मिक स्वरूप का चित्रण उपलब्ध होता को नई परिभाषाएँ प्रदान की। यहाँ जैनधर्म के द्वारा प्रस्तुत ब्राह्मण, यज्ञ है। बुद्ध ने भी आध्यात्मिक यज्ञ के स्वरूप का चित्रण लगभग उसी रूप आदि की कुछ नई परिभाषाएँ दी जा रही हैं। में किया है जिस रूप में उसका विवचेन उत्तराध्ययन सूत्र में किया गया है। अंगुत्तरनिकाय में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का वर्णन करते हुए ब्राह्मण का नया अर्थ बुद्ध कहते हैं कि हे ब्राह्मण, ये तीन अग्नियाँ त्याग करने और परिवर्तन जैन-परम्परा ने सदाचरण को ही मानवीय जीवन में उच्चता करने के योग्य हैं, उनका सेवन नहीं करना चाहिये। हे ब्राह्मण, इन तीन और निमृता का प्रतिमान माना और उसे ही ब्राह्मणत्व का आधार बताया। अग्नियों का सत्कार करें, इन्हें सम्मान प्रदान करें, इनकी पूजा और परिचर्या उत्तराध्ययनसूत्र के पच्चीसवें अध्याय एवं धम्मपद के ब्राह्मण वर्ग नामक भलीभाँति सुख से करें। ये अग्नियाँ कौन सी हैं, आह्वानीयाग्नि अध्याय में सच्चा ब्राह्मण कौन है, इसका सविस्तार विवेचन उपलब्ध है। (आहनेहय्यग्गि), गार्हपत्याग्नि (गहपत्तग्गि) और दक्षिणाग्नि (दक्खिणाय्यग्गि)। विस्तार भय से उसकी समग्र चर्चा में न जाकर केवल एक दो पद्यों को माँ-बाप को आह्वानीयाग्नि समझना चाहिये और सत्कार से उनकी पूजा प्रस्तुत कर ही विराम लेंगे। उत्तराध्ययनसूत्र में बताया गया है कि 'जो जल करनी चाहिये। पत्नी और बच्चे, दास तथा कर्मकार को गार्हपत्याग्नि में उत्पन्न हुए कमल के समान भोगों में उत्पन्न होते हुए भी भोगों में लिप्त समझना चाहिये और आदर्शपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिये। श्रमणनहीं रहता, वही सच्चा ब्राह्मण है'। जो राग, द्वेष और भय से मुक्त होकर ब्राह्मणों को दक्षिणाग्नि समझना चाहिये और सत्कारपूर्वक उनकी पूजा Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव 599 करनी चाहिये। हे ब्राह्मण, यह लकड़ियों की अग्नि तो कभी जलानी पड़ती क्षण भर भी सेवा करे तो यह सेवा कहीं उत्तम है, न कि सौ वर्षों तक है, कभी उपेक्षा करनी पड़ती है और कभी उसे बुझानी पड़ती है, किन्तु किया हुआ यज्ञ। इस प्रकार जैनधर्म ने तत्कालीन कर्मकाण्डी मान्यताओं ये अग्नियाँ तो सदैव और सर्वत्र पूजनीय हैं। इसी प्रकार बुद्ध ने भी हिंसक को एक नई दृष्टि प्रदान की और उन्हें आध्यात्मिक स्वरूप दिया, साथ यज्ञों के स्थान पर यज्ञ के आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्वरूप को प्रकट ही धर्म-साधना का जो बहिर्मुखी दृष्टिकोण था उसे आध्यात्मिक संस्पर्श किया। इतना ही नहीं, उन्होंने सच्चे यज्ञ का अर्थ सामाजिक जीवन में द्वारा अन्तर्मुखी बनाया। इससे उस युग के वैदिक चिन्तन में एक सहयोग करना बताया।५ श्रमण-धारा के इस दृष्टिकोण के समान ही क्रान्तिकारी परिवर्तन उपस्थित हुआ। इस प्रकार वैदिक संस्कृति को उपनिषदों एवं गीता में भी यज्ञ-याग की निन्दा की गयी है और यज्ञ की रूपान्तरित करने का श्रेय सामान्य रूप से श्रमण-परम्परा के और विशेष सामाजिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से विवेचना की गई है। सामाजिक सन्दर्भ रूप से जैन-परम्परा को है। में यज्ञ का अर्थ समाज-सेवा माना गया है। निष्कामभाव से समाज की कर्मकाण्ड और आध्यात्मिक साधनाएँ प्रत्येक धर्म के अनिवार्य सेवा करना गीता में यज्ञ का सामाजिक पहलू था। दूसरी ओर गीता में अंग हैं। कर्मकाण्ड उसका शरीर है और आध्यात्मिकता उसका प्राण। यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का विवेचन भी किया गया है। गीताकार कहता भारतीय धर्मों में प्राचीन काल से ही हमें ये दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ स्पष्ट है कि योगीजन संयमरूप अग्निरूप अग्नि में श्रोत्रादि इन्द्रियों का हवन रूप से दृष्टिगोचर होती हैं। जहाँ प्रारम्भिक वैदिक-परम्परा धर्म-कर्मकरते हैं या इन्द्रियों के विषयों का इन्द्रियों में हवन करते हैं। दूसरे कुछ काण्डात्मक अधिक रही हैं, वहाँ प्राचीन श्रमण-परम्पराएँ साधनात्मक साधक इन्द्रियों के सम्पूर्ण कर्मों को और शरीर के भीतर रहने वाला वायु अधिक रही हैं। फिर भी इन दोनों प्रवृत्तियों को एक दूसरे से पूर्णतया जो प्राण कहलाता है, उसके 'संकुचित होने', 'फलने' आदि कर्मों को पृथक् रख पाना कठिन है। श्रमण-परम्परा में आध्यात्मिक और धार्मिक ज्ञान से प्रकाशित हुई आत्म-संयमरूप योगाग्नि में हवन करते हैं। घृतादि साधना के जो विधि-विधान बने थे, वे भी धीरे-धीरे कर्मकाण्ड के रूप चिकनी वस्तु प्रज्ज्वलित हुई अग्नि की भाँति विवेक-विज्ञान से उज्ज्वलता में ही विकसित होते गये। अनेक आन्तरिक एवं बाह्य साक्ष्यों से यह को प्राप्त हुई (धारणा-ध्यान समाधि रूप) उस आत्म-संयम-योगाग्नि में सुनिश्चित हो जाता है कि इनमें अधिकांश कर्मकाण्ड वैदिक या ब्राह्मण (प्राण और इन्द्रियों के कर्मों को) विलीन कर देते हैं। इस प्रकार जैनधर्म परम्परा अथवा दूसरी अन्य परम्पराओं के प्रभाव से आये हैं। में यज्ञ के जिस आध्यात्मिक स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, उसका जैन-परम्परा मूलतः श्रमण-परम्परा का ही एक अंग है और अनुमोदन बौद्ध परम्परा और वैदिक परम्परा में हुआ है। यही श्रमण- इसलिये यह अपने प्रारम्भिक रूप में कर्मकाण्ड की विरोधी एवं परम्परा का हिन्दू-परम्परा को मुख्य अवदान था। आध्यात्मिक साधना प्रधान रही है। मात्र यही नहीं उत्तराध्ययन जैसे प्राचीन जैन-ग्रन्थों में स्नान, हवन, यज्ञ आदि कर्मकाण्डों का विरोध भी परिलक्षित स्नान आदि के प्रति नया दृष्टिकोण होता है। जैसा हम पूर्व में बता चुके हैं कि उत्तराध्ययनसूत्र की यह विशेषता जैन विचारकों ने अन्य नैतिकता सम्बन्धी विचारों को भी नई है कि उसने धर्म के नाम पर किये जाने वाले इन कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों दृष्टि प्रदान की। बाह्य शौच या स्नान जो कि उस समय धर्म और नैतिक को एक आध्यात्मिक रूप प्रदान किया था। तत्कालीन ब्राह्मण वर्ग ने यज्ञ, जीवन का एक मुख्य रूप मान लिया गया था, को भी एक नया श्राद्ध और तर्पण के नाम पर कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों के माध्यम से आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया गया। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है सामाजिक शोषण की जो प्रक्रिया प्रारम्भ की थी, जैन और बौद्ध परम्पराओं कि धर्म जलाशय है और ब्रह्मचर्य घाट (तीर्थ) है, उसमें स्नान करने से ने उसका खुला विरोध किया था। आत्मा शान्त, निर्मल और शुद्ध हो जाती है। इसी प्रकार बौद्ध-दर्शन में वस्तुतः वैदिक कर्मकाण्ड की विरोधी जनजातियों एवं भी सच्चे स्नान का अर्थ मन, वाणी और काया से सद्गुणों का सम्पादन भक्तिमार्गी परम्परा में धार्मिक अनुष्ठान के रूप में पूजा-विधि का विकास माना गया है। न केवल जैन और बौद्ध परम्परा में वरन् वैदिक परम्परा हुआ, तो श्रमण-परम्परा में तपस्या और ध्यान का। जैन समाज में यक्षपूजा में भी यह विचार प्रबल हो गया कि यथार्थ शुद्धि आत्मा के सद्गुणों के के प्राचीनतम उल्लेख जैनागमों में उपलब्ध हैं। जनसाधारण में प्रचलित विकास में निहित है। इस प्रकार श्रमणों के इस चिन्तन का प्रभाव वैदिक भक्तिमार्गी धारा का प्रभाव जैन और बौद्ध धर्मों पर भी पड़ा और उनमें या हिन्दू परम्परा पर भी हुआ। तप, संयम एवं ध्यान के साथ-साथ जिन एवं बुद्ध की पूजा की भावना इसी प्रकार ब्राह्मणों को दी जाने वाली दक्षिणा के प्रति एक विकसित हुई। परिणामत: प्रथम स्तूप, चैत्य आदि के रूप में प्रतीक पूजा नई दृष्टि प्रदान की गई और यह बताया गया कि दान की अपेक्षा, संयम प्रारम्भ हुई, फिर सिद्धायतन (जिन-मन्दिर) आदि बने और बुद्ध एवं जिनही श्रेष्ठ है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि प्रति मास सहस्रों गायों प्रतिमा की पूजा होने लगी, परिणामस्वरूप जिन-पूजा, दान आदि को का दान करने की अपेक्षा भी जो बाह्य रूप से दान नहीं करता वरन् संयम गृहस्थ का मुख्य कर्त्तव्य माना गया। दिगम्बर परम्परा में तो गृहस्थ के का पालन करता है, उस व्यक्ति का संयम ही अधिक श्रेष्ठ है। धम्मपद लिये प्राचीन षडावश्यकों के स्थान पर षट् दैनिक कृत्यों-जिनपूजा, में भी कहा गया है कि एक तरफ मनुष्य यदि वर्षों तक हजारों की दक्षिणाा गुरुसेवा, स्वाध्याय, तप, संयम एवं दान की कल्पना की गयी। हमें देकर प्रति मास यज्ञ करता जाय और दूसरी तरफ यदि वह पुण्यात्मा की आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, भगवती आदि प्राचीन आगमों में Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 600 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ जिनपूजा की विधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। इनकी अपेक्षा परवर्ती हो सकता है। वह प्रायश्चित्त पाठ निम्नलिखित हैआगमों-स्थानांग आदि में जिनप्रतिमा एवं जिनमन्दिर (सिद्धायतन) के ईयापथे प्रचलताद्य मया प्रमादात्, उल्लेख हैं, किन्तु उनमें पूजा सम्बन्धी किसी अनुष्ठान की चर्चा नहीं है। एकेन्द्रियप्रमुखजीवनिकायबाधा। जबकि राजप्रश्नीय में सूर्याभदेव और ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी के द्वारा निद्वर्तिता यदि भवेव युगान्तरेक्षा, जिनप्रतिमाओं के पूजन के उल्लेख हैं। यह सब बृहद् हिन्दू-परम्परा का मिथ्या तदस्तु दुरितं गुरूभक्तितो मे।। जैनधर्म पर प्रभाव है। स्मरणीय है कि श्वेताम्बर परम्परा में चैत्यवन्दन में भी हरिवंशपुराण में जिनसेन ने जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, धूप, 'इरियाविहि विराहनाये' नामक पाठ किया जाता है जिसका तात्पर्य है 'मैं दीप और नैवेद्य का उल्लेख किया है। इस उल्लेख में भी अष्टद्रव्यों का चैत्यवन्दन के लिये जाने में हुई एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का प्रयश्चित्त क्रम यथावत् नहीं और न जल का पृथक् निर्देश ही है। स्मरण रहे कि करता हूँ। दूसरी ओर पूजाविधानों में एवं होमों में पृथ्वी, वायु, अप, प्रतिमा-प्रक्षालन की प्रक्रिया का अग्रिम विकास अभिषेक है जो अपेक्षाकृत अग्नि और वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का विधान, एक और भी परवर्ती है। आन्तरिक अंसगति तो है ही। सम्भवतः हिन्दू धर्म के प्रभाव से ईसा की पद्मपुराण, पद्मनन्दिकृत पंचविंशति, आदिपुराण, हरिवंशपुराण, छठी-सातवीं शताब्दी तक जैनधर्म में पूजा-प्रतिष्ठा सम्बन्धी अनेक वसुनन्दि श्रावकाचार आदि ग्रन्थों से अष्टद्रव्यों का फलादेश भी ज्ञात होता कर्मकाण्डों का प्रवेश हो गया था। यही कारण है कि आठवीं शती में है। यह माना गया है कि अष्टद्रव्यों द्वारा पूजन करने से ऐहिक और हरिभद्र को इनमें से अनेक का मुनियों के लिये निषेध करना पड़ा। हरिभद्र पारलौकिक अभ्युदयों की प्राप्ति होती है। भावसंग्रह में भी अष्टद्रव्यों का ने सम्बोधप्रकरण में चैत्यों में निवास, जिनप्रतिमा की द्रव्यपूजा, पृथक्-पृथक् फलादेश बताया गया है। जिनप्रतिमा के समक्ष नृत्य, गान, नाटक आदि का जैनमुनि के लिये निषेध डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा प्रस्तुत यह विवरण हिन्दू-परम्परा किया है।१० के प्रभाव से दिगम्बर परम्परा में पूजा-द्रव्यों के क्रमिक विकास को स्पष्ट सामान्यत: जैन-परम्परा में तपप्रधान अनुष्ठानों का सम्बन्ध कर देता है। श्वेताम्बर परम्परा में हिन्दुओं की पंचोपचारी पूजा से अष्टप्रकारी कर्ममल को दूरकर मनुष्य के आध्यात्मिक गुणों का विकास और पाशविक पूजा और उसी से सत्रह भेदी पूजा विकसित हुई। यह सर्वोपचारी या सत्रह आवेगों का नियन्त्रण रहा है। जिनभक्ति और जिनपूजा सम्बन्धी अनुष्ठानों भेदी वैष्णवो की षोडशोपचारी पूजा का ही रूप है और बहुत कुछ रूप का उद्देश्य भी लौकिक उपलब्धियों एवं विघ्न-बाधाओं का अपशमन न में इसका उल्लेख राजप्रश्नीय में उपलब्ध है। होकर व्यक्ति का अपना आध्यात्मिक विकास ही है। जैन साधक स्पष्ट इस समग्र चर्चा में हमें ऐसा लगता है कि जैन-परम्परा में रूप से इस बात को दृष्टि में रखता है कि प्रभु की पूजा और स्तुति केवल सर्वप्रथम धार्मिक अनुष्ठान के रूप में षडावश्यकों का विकास हुआ। भक्त के स्व-स्वरूप या जिनगुणों की उपलब्धि के लिये है। उन्हीं षडावश्यकों में स्तवन या गुण-स्तुति का स्थान या उसी से आगे जैन परम्परा का उद्घोष है- 'वन्दे तद्गुण लब्धये' अर्थात् चलकर भावपूजा प्रचलित हुई और फिर द्रव्यपूजा की कल्पना सामने जिनदेव की एवं हमारी आत्मा तत्त्वतः समान है, अत: वीतराग के आई किन्तु द्रव्यपूजा का विधान केवल श्रावकों के लिये हुआ। गुणों की उपलब्धि का अर्थ है स्वरूप की उपलब्धि। इस प्रकार जैन तत्पश्चात् श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में जिनपूजा-सम्बन्धी अनुष्ठान मूलतः आत्मविशुद्धि और स्वरूप की उपलब्धि के लिये है। जटिल विधि-विधानों का जो विस्तार हुआ, वह सब ब्राह्मण-परम्परा जैन अनुष्ठानों में जिन गाथाओं या मन्त्रों का पाठ किया जाता है, उनमें का प्रभाव था। आगे चलकर जिनमन्दिर के निर्माण एवं जिनबिम्बों की भी अधिकांशत: तो पूजनीय के स्वरूप का ही बोध कराते हैं अथवा प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में हिन्दुओं का अनुसरण करके अनेक प्रकार के आत्मा के लिये पतनकारी प्रवृत्तियों का अनुस्मरण कराकर उनसे मुक्त विधि-विधान बने। पं० फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री ने "ज्ञानपीठ होने की प्रेरणा देते हैं। पूजांजलि' की भूमिका में और डॉ० नेमिचंदजी शास्त्री ने, अपने एक यद्यपि जैन अनुष्ठानों की मूल प्रकृति अध्यात्मपरक है किन्तु लेख 'पुष्पकर्म-देवपूजा : विकास एवं विधि' जो उनकी पुस्तक मनुष्य की यह एक स्वाभाविक कमजोरी है कि वह धर्म के माध्यम से "भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मय का अवदान" (प्रथम भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि चाहता है, साथ ही उनकी उपलब्धि खण्ड), पृ० 379 पर प्रकाशित है, में इस बात को स्पष्ट रूप से में बाधक शक्तियों के निवर्तन के लिये भी धर्म से ही अपेक्षा रखता है। स्वीकार किया है कि जैन-परम्परा में पूजा-द्रव्यों का क्रमश: विकास वह धर्म को इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के शमन का साधन मानता है। हुआ है। यद्यपि पुष्पपूजा प्राचीनकाल से ही प्रचलित है फिर भी यह मनुष्य की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति का यह परिणाम हुआ कि हिन्दू धर्म जैन-परम्परा के आत्यन्तिक अहिंसा सिद्धान्त से मेल नहीं खाती है। के प्रभाव से जैन परम्परा में भी अनुष्ठानों का आध्यात्मिक स्वरूप पूर्णतया एक ओर तो पूजा-विधान का पाठ जिसमें होने वाली एकेन्द्रिय जीवों स्थिर न रह सका, उसमें विकृति आयी। सत्य तो यह है कि जैनधर्म का की हिंसा का प्रायश्चित्त हो और दूसरी ओर पुष्प, जो स्वयं एकेन्द्रिय अनुयायी आखिर वही मनुष्य है जो भौतिक जीवन में सुख-समृद्धि की जीव है, उन्हें जिन-प्रतिमा को समर्पित करना कहाँ तक संगतिपूर्ण कामना से मुक्त नहीं है। अत: जैन आचार्यों के लिये यह आवश्यक हो Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव 601 गया कि वे अपने उपासकों की जैनधर्म में श्रद्धा बनाये रखने के लिये मन्त्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च। जैनधर्म के साथ कुछ ऐसे अनुष्ठानों को भी जोड़ें जो अपने उपासकों तत्सर्व क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर।।२।। के भौतिक कल्याण में सहायक हो। निवृत्तिप्रधान, अध्यात्मवादी एवं . -विसर्जनपाठ कर्मसिद्धान्त में अटल विश्वास रखने वाले जैनधर्म के लिये यह न्यायसंगत इसके स्थान में ब्राह्मणधर्म में ये श्लोक उपलब्ध होते हैंतो नहीं था फिर भी यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि उसमें यह प्रवृत्ति आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्। विकसित हुई है। पूजनं नैव जानामि क्षमस्व परमेश्वर।।१।। जैनधर्म का तीर्थङ्कर व्यक्ति के भौतिक कल्याण में साधक या मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन। बाधक नहीं हो सकता है, अत: जैन अनुष्ठानों में जिनपूजा के यक्ष-यक्षियों यत्पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्तु मे।।२।। के रूप में शासनदेवता तथा देवी की कल्पना विकसित हुई और यह माना। - इसी प्रकार पंचोपचारपूजा, अष्टद्रव्यपूजा, यज्ञ का विधान, जाने लगा कि तीर्थङ्कर की अथवा अपनी उपासना से शासनदेवता (यक्ष- विनायक-यन्त्र-स्थापना, यज्ञोपवीतधारण आदि भी जैन-परम्परा के यक्षी) प्रसन्न होकर उपासक का कल्याण करते हैं। शासनरक्षक देवी- अनुकूल नहीं हैं। किन्तु जब पौराणिक धर्म का प्रभाव बढ़ने लगा, तो देवताओं के रूप में सरस्वती, लक्ष्मी, अग्निका, पद्मावती, चक्रेश्वरी, पंचोरपचारपूजा आदि विधियों का प्रवेश हुआ। दसवीं शती के अनन्तर काली आदि अनेक देवियों तथा मणिभद्र, घण्टाकर्ण महावीर, पार्श्वयक्ष इन विधियों को इतना महत्त्व प्राप्त हुआ जिससे पूर्व प्रचलित विधि गौण आदि यक्षों, दिक्पालों एवं अनेक क्षेत्रपालों (भैरवों) को जैन-परम्परा में हो गयी। प्रतिमा के समक्ष रहने पर भी आह्वान, सत्रिधिकरण, पूजन और स्थान मिला। इन सबकी पूजा के लिये जैनों ने विभिन्न अनुष्ठानों को विसर्जन क्रमश: पंचकल्याणकों की स्मृति के लिये व्यवहृत होने लगे। किंचित् परिवर्तन के साथ वैदिक परम्परा से ग्रहण कर लिया। भैरव पूजा को वैयावृत्य का अंग माना जाने लगा तथा एक प्रकार से इसे पद्मावतीकल्प आदि ग्रन्थों से इसकी पुष्टि होती है। जैन-पूजा और प्रतिष्ठा ‘आहारदान' के तुल्य महत्त्व प्राप्त हुआ। इस प्रकार पूजा के समय की विधि में वैदिक परम्परा के अनेक ऐसे तत्त्व भी जुड़ गये जो जैन- सामायिक या ध्यान की मूल भावना में परिवर्तन हुआ और पूजा को परम्परा के मूलभूत मन्तव्यों से भिन्न हैं। हम यह देखते हैं कि जैन-परम्परा अतिथिसंविभाग व्रत का अंग मान लिया गया। यह सभी ब्राह्मण परम्परा में चक्रेश्वरी, पद्मावती, अम्बिका, घण्टाकर्ण महावीर, नाकोड़ा भैरव, की अनुकृति ही है, यद्यपि इस सम्बन्ध में बोले जाने वाले मन्त्रों को निश्चिय भेमियाजी, दिक्पाल, क्षेत्रपाल आदि की उपासना प्रमुख होती जा रही ही जैन रूप दे दिया गया है। जिस परम्परा में एक वर्ग ऐसा हो जो तीर्थङ्कर है। जैनधर्म में पूजा और उपासना का यह दूसरा पक्ष जो हमारे सामने के कवलाहार का भी निषेध करता हो वही तीर्थङ्कर की सेवा में नैवेद्य आया, वह मूलत: वैदिक या ब्राह्मण-परम्परा का प्रभाव ही है। जिनपूजा अर्पित करे, यह क्या सिद्धान्त की विडम्बना नहीं कही जायेगी? जैनएवं अनुष्ठान विधियों में अनेक ऐसे मन्त्र मिलते हैं जिन्हें ब्राह्मण-परम्परा परम्परा ने पूजा-विधान के अतिरिक्त संस्कार-विधि में भी हिन्दू-परम्परा के तत्सम्बन्धी मन्त्रों का मात्र जैनीकरण कहा जा सकता है। उदाहरण के का अनुसरण किया है। सर्वप्रथम आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में हिन्दू रूप में जिस प्रकार ब्राह्मण-परम्परा में इष्ट देवता की पूजा के समय उसका संस्कारों को जैन दृष्टि से संशोधित करके जैनों के लिये भी एक पूरी आह्वान और विसर्जन किया जाता है, उसी प्रकार जैन-परम्परा में भी पूजा संस्कार-विधि तैयार की है। सामान्यतया हिन्दुओं में जो सोलह संस्कारों के समय जिन के आह्वान और विसर्जन के मन्त्र बोले जाते हैं। यथा- की परम्परा है, उसमें निवृत्तिमूलक परम्परा की दृष्टि से दीक्षा ॐ ह्रीं णमों सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र अवतर अवतर संवोषट्। (संन्यासग्रहण) आदि कुछ संस्कारों की वृद्धि करके यह संस्कार-विधि ऊँ ह्रीं णमों सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। तैयार की गयी है। इसमें गर्भान्वय क्रिया, दीक्षान्वय क्रिया और क्रियान्वय ॐ ह्रीं णमों सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र मम सन्निहतो भवभव वषट्। क्रिया ऐसे तीन विभाग किये गए हैं। इनमें गर्भ से लेकर निर्वाण पर्यन्त ऊँ ह्रीं णमों सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् स्वस्थानं गच्छ गच्छ जः जः जः। क्रियाएँ बताई गई हैं। यह स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा में जो संस्कार ये मन्त्रं जैनदर्शन की मूलभूत मान्यताओं के प्रतिकूल हैं। विधि प्रचलित हुई वह बृहद् हिन्दू-परम्परा से प्रभावित है। श्वेताम्बर परम्परा क्योंकि जहाँ ब्राह्मण-परम्परा का यह विश्वास है कि आह्वान करने पर देवता में किसी संस्कार-विधि का उल्लेख नहीं मिलता है किन्तु व्यवहार में वे आते हैं और विसर्जन करने पर चले जाते हैं। वहाँ जैन-परम्परा में भी हिन्दू-परम्परा में प्रचलित संस्कारों को यथावत् रूप में अपनाते हैं। सिद्धावस्था को प्राप्त तीर्थङ्कर न तो आह्वान करने पर उपस्थित हो सकते उनमें आज भी विवाहादि संस्कार हिन्दू परम्परानुसार ही ब्राह्मण पण्डित हैं और न विसर्जन करने पर जा ही सकते हैं। पं० फूलचन्दजी ने “ज्ञानपीठ के द्वारा सम्पन्न कराए जाते हैं। अत: स्पष्ट है कि विवाहादि संस्कारों के पूजांजलि" की भूमिका में विस्तार से इसकी चर्चा की है तथा आह्वान सम्बन्ध में भी जैन परम्परा पर हिन्दू परम्परा का स्पष्ट प्रभाव है। एवं विसर्जन सम्बन्धी जैन मन्त्रों की ब्राह्मण मन्त्रों में समानता भी दिखाई वस्तुत: मन्दिर एवं जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा आदि से सम्बन्धित है। तुलना कीजिये अधिकांश अनुष्ठान ब्राह्मण परम्परा की देन हैं और उसकी मूलभूत आवाहनं नैव जानामि नैव जानामि पूजनम्। प्रकृति कहे जा सकते हैं। किसी भी परम्परा के लिये अपनी सहवर्ती विसर्जनं न जानामि क्षमस्व परमेश्वर।।१।। परम्परा से पूर्णतया अप्रभावित रह पाना कठिन है और इसलिये यह Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 602 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ स्वाभाविक ही था कि जैन-परम्परा की अनुष्ठान विधियों में ब्राह्मण लगभग सातवीं सदी में दक्षिण भारत में हुए आचार्य जिनसेन ने परम्परा का प्रभाव आया। लोकापवाद के भय से तथा जैन धर्म का अस्तित्व और सामाजिक सम्मान बनाये रखने के लिये हिन्दू वर्ण एवं जाति-व्यवस्था को इस प्रकार हिन्दु वर्ण एवं जाति व्यवस्था का जैनधर्म पर प्रभाव आत्मसात कर लिया कि इस सम्बन्ध में जैनों का जो वैशिष्ट्य था, वह मूलतः श्रमण-परम्परा और जैनधर्म वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध प्राय: समाप्त हो गया। जिनसेन ने सर्वप्रथम यह बताया कि आदि ब्रह्मा खड़े हुए थे किन्तु कालक्रम में बृहत् हिन्दू-समाज के प्रभाव से उसमें ऋषभदेव ने षट्कर्मों का उपदेश देने के पश्चात् तीन वर्णों (क्षत्रिय, वैश्य, भी वर्ण एवं जाति सम्बन्धी अवधारणाएँ प्रविष्ट हो गईं। जैन परम्परा में और शूद्र) की सृष्टि की। इसी ग्रन्थ में आगे यह भी कहा गया है कि जाति और वर्ण-व्यवस्था के उद्भव एवं ऐतिहासिक विकास का विवरण जो क्षत्रिय और वैश्य वर्ण की सेवा करते हैं वे शूद्र हैं। इनके दो भेद सर्वप्रथम आचारांगनियुक्ति (लगभग ईस्वी सन् तीसरी शती) में प्राप्त होता हैं-कारू और अकारू। पुनः कारू के भी दो भेद हैं-स्पृश्य और अस्पृश्य। है। उसके अनुसार प्रारम्भ में मनुष्य जाति एक ही थी। ऋषभ के द्वारा राज्य- धोबी, नापित आदि स्पृश्य शूद्र हैं और चाण्डाल आदि जो नगर के बाहर व्यवस्था का प्रारम्भ होने पर उसके दो विभाग हो गये-१. शासक (स्वामी) रहते हैं वे अस्पृश्य शूद्र हैं (आदिपुराण, 16/184-186) / शूद्रों के एवं 2. शासित (सेवक)। उसके पश्चात् शिल्प और वाणिज्य के विकास कारू और अकारू तथा स्पृश्य और अस्पृश्य ये भेद सर्वप्रथम केवल के साथ उसके तीन विभाग हुए-१. क्षत्रिय (शासक), 2. वैश्य (कृषक पुराणकाल में जिनसेन ने किये हैं। उनके पूर्ववर्ती अन्य किसी जैन आचार्य और व्यवसायी) और 3. शूद्र (सेवक)। उसके पश्चात् श्रावक-धर्म की ने इस प्रकार के भेदों को मान्य नहीं किया है। किन्तु हिन्दू समाज-व्यवस्था स्थापना होने पर अहिंसक, सदाचारी और धर्मनिष्ठ व्यक्तियों को ब्राह्मण से प्रभावित होने के बाद के जैन आचार्यों ने इसे प्राय: मान्य किया। (माहण) कहा गया। इस प्रकार क्रमश: चार वर्ण अस्तित्व में आए। इन षट्प्राभृत के टीकाकार श्रुतसागर ने भी इस स्पृश्य-अस्पृश्य की चर्चा चार वर्गों के स्त्री-पुरुषों के समवर्णीय अनुलोम एवं प्रतिलोम संयोगों से की है। यद्यपि पुराणकार ने शूद्रों को एकशाटकव्रत अर्थात क्षुल्लकदीक्षा सोलह वर्ण बने जिनमें सात वर्ण और नौ अन्तर वर्ण कहलाए। सात वर्ण का अधिकार मान्य किया था किन्तु बाद के दिगम्बर जैन आचार्यों ने उसमें में समवर्णीय स्त्री-पुरुष के संयोग से चार मूल वर्ण तथा ब्राह्मण पुरुष भी कमी कर दी और शूद्र की मुनि-दीक्षा एवं जिनमन्दिर में प्रवेश का एवं क्षत्रिय स्त्री के संयोग से उत्पन्न, क्षत्रिय पुरुष एवं वैश्य स्त्री के संयोग भी निषेध कर दिया। श्वेताम्बर परम्परा में स्थानांगसूत्र (3/202) के से उत्पन्न और वैश्य पुरुष एवं शूद्र स्त्री के संयोग से उत्पन्न, ऐसे अनुलोम मूलपाठ में तो केवल रोगी, भयार्त और नपुंसक की मुनि-दीक्षा का निषेध संयोग से उत्पन्न तीन वर्ण। आचारांगचूर्णि (ईसा की ७वीं शती) में इसे था किन्तु परवर्ती टीकाकारों ने चाण्डालादि जाति-जुंगित और व्याधादि स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि 'ब्राह्मण पुरुष एवं क्षत्राणी के संयोग कर्मसुंगति लोगों को दीक्षा देने को निषेध कर दिया। यद्यपि यह सब जैनसे जो सन्तान उत्पन्न होती है वह उत्तम क्षत्रिय, शुद्ध क्षत्रिय या संकर धर्म की मूल परम्परा के तो विरूद्ध ही था फिर भी हिन्दू-परम्परा के प्रभाव क्षत्रिय कही जाती है, यह पाँचवाँ वर्ण है। इसी प्रकार क्षत्रिय पुरुष और से इसे मान्य कर लिया गया। स्थिति यहाँ तक पहुँची कि एक ही जैनधर्म वैश्य स्त्री से उत्पन्न सन्तान उत्तम वैश्य, शुद्ध वैश्य या संकर वैश्य कही के अनुयायी जातीय भेद के आधार पर दूसरी जाति का छुआ हुआ खाने जाती है, यह छठाँ वर्ण है तथा वैश्य पुरुष एवं शूद्र-स्त्री के संयोग से में, उन्हें साथ बिठाकर भोजन करने में आपत्ति करने लगे। शूद्र का जलउत्पन्न सन्तान शुद्ध शूद्र या संकर शूद्र कही जाती है, यह सातवाँ वर्ण त्याग एक आवश्यक कर्तव्य हो गया और शूद्रों का जिन-मन्दिर में प्रवेश है। पुन: अनुलोम और प्रतिलोम सम्बन्धों के आधार पर निम्नलिखित नौ निषिद्ध कर दिया गया। अन्तर-वर्ण बनोब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से 'अम्बष्ठ' नामक आठवाँ इस प्रकार जहाँ प्राचीन स्तर में जैन चारों ही वर्गों और सभी वर्ण उत्पन्न हुआ, क्षत्रिय पुरुष और शूद्र स्त्री से 'उग्र' नामक नवाँ वर्ण जातियों के व्यक्ति जिन-पूजा करने, श्रावक धर्म एवं मुनिधर्म का पालन हुआ, ब्राह्मण पुरुष और शूद्र स्त्री से 'निषाद' नामक दसवाँ वर्ण उत्पन्न करने और साधना के सर्वोच्च लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करने के अधिकारी हुआ, शूद्र पुरुष और वैश्य स्त्री से 'अयोग' नामक ग्यारहवाँ वर्ण उत्पन्न माने गये थे, वहीं सातवीं-आठवीं सदी में जिनसेन ने सर्वप्रथम शूद्र को हुआ, क्षत्रिय और ब्राह्मणी से 'सूत' नामक तेरहवाँ वर्ण हुआ, शूद्र पुरुष मुनि-दीक्षा और मोक्ष-प्राप्ति हेतु अयोग्य माना। श्वेताम्बर आगमों में कहीं और क्षत्रिय स्त्री से 'क्षत्रा' (खन्ना) नामक चौदहवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ, वैश्य शूद्र की दीक्षा का निषेध नहीं है, स्थानांग में मात्र रोगी, भयार्त और नपुंसक पुरुष और ब्राह्मण स्त्री के संयोग से 'वेदेह' नामक पन्द्रहवाँ वर्ण उत्पन्न की दीक्षा का निषेध है किन्तु आगे चलकर उनमें भी जाति-जुंगति जैसेहुआ और शूद्र पुरुष तथा ब्राह्मण स्त्री के संयोग से 'चाण्डाल' नामक चाण्डाल आदि और कर्म-जुंगित जैसे-कसाई आदि की दीक्षा का निषेध सोलहवाँ वर्ण हुआ। इसके पश्चात् इन सोलह वर्गों में परस्पर अनुलोम कर दिया गया। किन्तु यह बृहत्तर हिन्दू-परम्परा का प्रभाव ही था जो कि एवं प्रतिलोम संयोग से अनेक जातियाँ अस्तित्व में आयीं" जैनधर्म के मूल सिद्धान्त के विरुद्ध था। जैनों ने इसे केवल अपनी उपरोक्त विवरण में हम यह देखते हैं कि जैन धर्म के आचार्यों सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाए रखने हेतु मान्य किया क्योंकि आगमों में ने भी काल-क्रम में जाति और वर्ण की उत्पत्ति के सन्दर्भ में हिन्दू-परम्परा हरिकेशीबल, मेतार्य, मातंगमुनि आदि अनेक चाण्कलों के मुनि होने और की व्यवस्थाओं को अपने ढंग से संशोधित कर स्वीकार कर लिया। मोक्ष प्राप्त करने के उल्लेख हैं। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव 603 م ه सन्दर्भ 5. भगवान बुद्ध (धर्मानन्द कौसाम्बी), पृ०, 236-239. उत्तराध्ययन, 25/27, 21. गीता, 4/33, 26-28. धम्मपद, 401-403. उत्तराध्ययन, 12/46. उत्तराध्ययन, 12/44. उत्तराध्ययन, 9/40, देखिये-गीता (शा०) 4/26-27. 4. अंगुत्तरनिकाय, सुत्तनिपात उधृत भगवान् बुद्ध (धर्मानन्द 9. धम्मपद, 106. कौसाम्बी), पृ० 26. 10. सम्बोध प्रकरण, गुर्वाधिकार, जैन धर्म की परम्परा, इतिहास के झरोखे से यद्यपि जनसंख्या की दृष्टि से आज विश्व में प्रति एक हजार प्राचीन काल में आचार और विचारगत विभिन्नताओं के होते हुए भी इन व्यक्तियों में मात्र छह व्यक्ति जैन हैं, फिर भी विश्व के धर्मों के इतिहास ऋषियों में पारस्परिक सौहार्द था। में जैन धर्म का अपना एक विशिष्ट स्थान है क्योंकि वैचारिक उदारता, ऋषिभाषित जो कि प्राकृत जैन आगमों और बौद्ध पालिपिटकों दार्शनिक गंभीरता, विपुल साहित्य और उत्कृष्ट शिल्प की दृष्टि से विश्व में अपेक्षाकृत रूप से प्राचीन है और जो किसी समय जैन परम्परा का के धर्मों में इसका अवदान महत्त्वपूर्ण है। प्रस्तुत निबन्ध में हम इस धर्म महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता था, अध्यात्मप्रधान श्रमणधारा के इस परम्परा को इतिहास के आइने में देखने का प्रयास करेंगे। पारस्परिक सौहार्द और एकरूपता को सूचित करता है। यह ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पश्चात् तथा शेष सभी प्राकृत और पालि साहित्य श्रमण परम्परा के पूर्व ई०पू० लगभग चतुर्थ शताब्दी में निर्मित हुआ है। इस ग्रन्थ में विश्व के धर्मों की मुख्यत: सेमेटिक धर्म और आर्य धर्म, ऐसी निर्ग्रन्थ, बौद्ध, औपनिषदिक एवं आजीवक आदि अन्य श्रमण परम्पराओं दो शाखाएँ हैं। सेमेटिक धर्मों में यहूदी, ईसाई और मुसलमान आते हैं के 45 ऋषियों के उपदेश संकलित हैं। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा के ग्रन्थ जबकि आर्य धर्मों में पारसी, हिन्दू (वैदिक), बौद्ध और जैन धर्म की थेरगाथा में भी श्रमण धारा के विभिन्न ऋषियों के उपदेश एवं आध्यात्मिक गणना की जाती है। इनके अतिरिक्त सुदूर पूर्व के देश जापान और चीन अनुभूतियाँ संकलित हैं। ऐतिहासिक एवं अनाग्रही दृष्टि से अध्ययन करने में विकसित कुछ धर्म कन्फूशियस एवं शिन्तो के नाम से जाने जाते हैं। से यह स्पष्ट हो जाता है कि न तो ऋषिभासित (इसिभासियाई) के सभी आर्य धर्मों में जहाँ हिन्दू धर्म के वैदिक स्वरूप को प्रवृत्तिमार्गी ऋषि जैन परम्परा के हैं और न थेरगाथा के सभी थेर (स्थविर) बौद्ध परम्परा माना जाता है वहाँ जैनधर्म और बौद्धधर्म को संन्यासमार्गी या निवृत्तिपरक के हैं। जहाँ ऋषिभाषित में सारिपुत्र, वात्सीपुत्र (वज्जीपुत्त) और कहा जाता है। जैन और बौद्ध दोनों ही धर्म श्रमण परम्परा के धर्म हैं। महाकाश्यप बौद्ध परम्परा के हैं, वहीं उद्दालक, याज्ञवल्क्य, अरुण, श्रमण परम्परा की विशेषता यह है कि वह सांसारिक एवं ऐहिक जीवन असितदेवल, नारद, द्वैपायन, अंगिरस, भारद्वाज आदि औपनिषदिक की दुःखमयता को उजागर कर संन्यास एवं वैराग्य के माध्यम से निर्वाण धारा से सम्बन्धित हैं, तो संजय (संजय वेलट्ठिपुत्त),मंखली गोशालक, की प्राप्ति को जीवन का चरम लक्ष्य निर्धारित करती है। इस निवृत्तिमार्गी रामपुत्त आदि अन्य स्वतन्त्र श्रमण परम्पराओं से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार श्रमण परम्परा ने अपनी तप एवं योग की आध्यात्मिक साधना एवं शीलों थेरगाथा में वर्द्धमान आदि जैन धारा की, तो नारद आदि औपनिषदिक या व्रतों के रूप में नैतिक मूल्यों की संस्थापना की दृष्टि से भारतीय धर्मों धारा के ऋषियों की स्वानुभूति संकलित है। सामान्यतया यह माना जाता के इतिहास में अपना विशिष्ट अवदान प्रदान किया है। इस श्रमण परम्परा है कि श्रमणधारा का जन्म वैदिक धारा की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ में न केवल जैन और बौद्ध धारायें ही सम्मिलित हैं, अपितु औपनिषदिक किन्तु इसमें मात्र आंशिक सत्यता है। यह सही है कि वैदिक धारा और सांख्य-योग की धारायें भी सम्मिलित हैं जो आज बृहद् हिन्दू धर्म प्रवृत्तिमार्गी थी और श्रमण धारा निवृत्तिमार्गी और इनके बीच वासना और का ही एक अंग बन चुकी हैं। इनके अतिरिक्त आजीवक आदि अन्य कुछ विवेक अथवा भोग और त्याग के जीवन मूल्यों का संघर्ष था। किन्तु धाराएं भी थीं जो आज विलुप्त हो चुकी हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से तो श्रमण-धारा का उद्भव मानव व्यक्तित्व के परिशोधन एवं नैतिक तथा अध्यात्मिक मूल्यों के प्रतिस्थापन का ही प्रयत्न पारस्परिक सौहार्द की प्राचीन स्थिति था जिसमें श्रमण-ब्राह्मण सभी सहभागी बने थे। ऋषिभाषित में इन ऋषियों प्राकृत साहित्य में ऋषिभाषित (इसिभासियाई) और पालि को अर्हत् कहना और सूत्रकृतांग में इन्हें अपनी परम्परा से सम्मत मानना, साहित्य में थेरगाथा ऐसे ग्रन्थ हैं जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि अति प्राचीन काल में इन ऋषियों की परम्परा के बीच पारस्परिक सौहार्द का