________________ 600 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ जिनपूजा की विधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। इनकी अपेक्षा परवर्ती हो सकता है। वह प्रायश्चित्त पाठ निम्नलिखित हैआगमों-स्थानांग आदि में जिनप्रतिमा एवं जिनमन्दिर (सिद्धायतन) के ईयापथे प्रचलताद्य मया प्रमादात्, उल्लेख हैं, किन्तु उनमें पूजा सम्बन्धी किसी अनुष्ठान की चर्चा नहीं है। एकेन्द्रियप्रमुखजीवनिकायबाधा। जबकि राजप्रश्नीय में सूर्याभदेव और ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी के द्वारा निद्वर्तिता यदि भवेव युगान्तरेक्षा, जिनप्रतिमाओं के पूजन के उल्लेख हैं। यह सब बृहद् हिन्दू-परम्परा का मिथ्या तदस्तु दुरितं गुरूभक्तितो मे।। जैनधर्म पर प्रभाव है। स्मरणीय है कि श्वेताम्बर परम्परा में चैत्यवन्दन में भी हरिवंशपुराण में जिनसेन ने जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, धूप, 'इरियाविहि विराहनाये' नामक पाठ किया जाता है जिसका तात्पर्य है 'मैं दीप और नैवेद्य का उल्लेख किया है। इस उल्लेख में भी अष्टद्रव्यों का चैत्यवन्दन के लिये जाने में हुई एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का प्रयश्चित्त क्रम यथावत् नहीं और न जल का पृथक् निर्देश ही है। स्मरण रहे कि करता हूँ। दूसरी ओर पूजाविधानों में एवं होमों में पृथ्वी, वायु, अप, प्रतिमा-प्रक्षालन की प्रक्रिया का अग्रिम विकास अभिषेक है जो अपेक्षाकृत अग्नि और वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का विधान, एक और भी परवर्ती है। आन्तरिक अंसगति तो है ही। सम्भवतः हिन्दू धर्म के प्रभाव से ईसा की पद्मपुराण, पद्मनन्दिकृत पंचविंशति, आदिपुराण, हरिवंशपुराण, छठी-सातवीं शताब्दी तक जैनधर्म में पूजा-प्रतिष्ठा सम्बन्धी अनेक वसुनन्दि श्रावकाचार आदि ग्रन्थों से अष्टद्रव्यों का फलादेश भी ज्ञात होता कर्मकाण्डों का प्रवेश हो गया था। यही कारण है कि आठवीं शती में है। यह माना गया है कि अष्टद्रव्यों द्वारा पूजन करने से ऐहिक और हरिभद्र को इनमें से अनेक का मुनियों के लिये निषेध करना पड़ा। हरिभद्र पारलौकिक अभ्युदयों की प्राप्ति होती है। भावसंग्रह में भी अष्टद्रव्यों का ने सम्बोधप्रकरण में चैत्यों में निवास, जिनप्रतिमा की द्रव्यपूजा, पृथक्-पृथक् फलादेश बताया गया है। जिनप्रतिमा के समक्ष नृत्य, गान, नाटक आदि का जैनमुनि के लिये निषेध डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा प्रस्तुत यह विवरण हिन्दू-परम्परा किया है।१० के प्रभाव से दिगम्बर परम्परा में पूजा-द्रव्यों के क्रमिक विकास को स्पष्ट सामान्यत: जैन-परम्परा में तपप्रधान अनुष्ठानों का सम्बन्ध कर देता है। श्वेताम्बर परम्परा में हिन्दुओं की पंचोपचारी पूजा से अष्टप्रकारी कर्ममल को दूरकर मनुष्य के आध्यात्मिक गुणों का विकास और पाशविक पूजा और उसी से सत्रह भेदी पूजा विकसित हुई। यह सर्वोपचारी या सत्रह आवेगों का नियन्त्रण रहा है। जिनभक्ति और जिनपूजा सम्बन्धी अनुष्ठानों भेदी वैष्णवो की षोडशोपचारी पूजा का ही रूप है और बहुत कुछ रूप का उद्देश्य भी लौकिक उपलब्धियों एवं विघ्न-बाधाओं का अपशमन न में इसका उल्लेख राजप्रश्नीय में उपलब्ध है। होकर व्यक्ति का अपना आध्यात्मिक विकास ही है। जैन साधक स्पष्ट इस समग्र चर्चा में हमें ऐसा लगता है कि जैन-परम्परा में रूप से इस बात को दृष्टि में रखता है कि प्रभु की पूजा और स्तुति केवल सर्वप्रथम धार्मिक अनुष्ठान के रूप में षडावश्यकों का विकास हुआ। भक्त के स्व-स्वरूप या जिनगुणों की उपलब्धि के लिये है। उन्हीं षडावश्यकों में स्तवन या गुण-स्तुति का स्थान या उसी से आगे जैन परम्परा का उद्घोष है- 'वन्दे तद्गुण लब्धये' अर्थात् चलकर भावपूजा प्रचलित हुई और फिर द्रव्यपूजा की कल्पना सामने जिनदेव की एवं हमारी आत्मा तत्त्वतः समान है, अत: वीतराग के आई किन्तु द्रव्यपूजा का विधान केवल श्रावकों के लिये हुआ। गुणों की उपलब्धि का अर्थ है स्वरूप की उपलब्धि। इस प्रकार जैन तत्पश्चात् श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में जिनपूजा-सम्बन्धी अनुष्ठान मूलतः आत्मविशुद्धि और स्वरूप की उपलब्धि के लिये है। जटिल विधि-विधानों का जो विस्तार हुआ, वह सब ब्राह्मण-परम्परा जैन अनुष्ठानों में जिन गाथाओं या मन्त्रों का पाठ किया जाता है, उनमें का प्रभाव था। आगे चलकर जिनमन्दिर के निर्माण एवं जिनबिम्बों की भी अधिकांशत: तो पूजनीय के स्वरूप का ही बोध कराते हैं अथवा प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में हिन्दुओं का अनुसरण करके अनेक प्रकार के आत्मा के लिये पतनकारी प्रवृत्तियों का अनुस्मरण कराकर उनसे मुक्त विधि-विधान बने। पं० फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री ने "ज्ञानपीठ होने की प्रेरणा देते हैं। पूजांजलि' की भूमिका में और डॉ० नेमिचंदजी शास्त्री ने, अपने एक यद्यपि जैन अनुष्ठानों की मूल प्रकृति अध्यात्मपरक है किन्तु लेख 'पुष्पकर्म-देवपूजा : विकास एवं विधि' जो उनकी पुस्तक मनुष्य की यह एक स्वाभाविक कमजोरी है कि वह धर्म के माध्यम से "भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मय का अवदान" (प्रथम भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि चाहता है, साथ ही उनकी उपलब्धि खण्ड), पृ० 379 पर प्रकाशित है, में इस बात को स्पष्ट रूप से में बाधक शक्तियों के निवर्तन के लिये भी धर्म से ही अपेक्षा रखता है। स्वीकार किया है कि जैन-परम्परा में पूजा-द्रव्यों का क्रमश: विकास वह धर्म को इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के शमन का साधन मानता है। हुआ है। यद्यपि पुष्पपूजा प्राचीनकाल से ही प्रचलित है फिर भी यह मनुष्य की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति का यह परिणाम हुआ कि हिन्दू धर्म जैन-परम्परा के आत्यन्तिक अहिंसा सिद्धान्त से मेल नहीं खाती है। के प्रभाव से जैन परम्परा में भी अनुष्ठानों का आध्यात्मिक स्वरूप पूर्णतया एक ओर तो पूजा-विधान का पाठ जिसमें होने वाली एकेन्द्रिय जीवों स्थिर न रह सका, उसमें विकृति आयी। सत्य तो यह है कि जैनधर्म का की हिंसा का प्रायश्चित्त हो और दूसरी ओर पुष्प, जो स्वयं एकेन्द्रिय अनुयायी आखिर वही मनुष्य है जो भौतिक जीवन में सुख-समृद्धि की जीव है, उन्हें जिन-प्रतिमा को समर्पित करना कहाँ तक संगतिपूर्ण कामना से मुक्त नहीं है। अत: जैन आचार्यों के लिये यह आवश्यक हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org